*कागज़ कश्ती और बारिश का पानी*
कागज़ की कश्ती
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कागज़ कश्ती और बारिश का पानी।
बचपन के दिन वो बेफिक्र जिंदगानी।
वो भारा सा बस्ता और सस्ता ज़माना,
वो झूठी सी कोई शिक़ायत लगानी।
वो तितली पकड़ना और अंडे छुपाना,
स्कूल न जाने की फिर वो जिद्द पुरानी।
ऊंचे पेड़ों पर चढ़ना वो जामुन चुराना,
बेलगाम दिल हर पल करता नादानी।
सदा ढूंढ़ते थे हम हंसने रोने के बहाने,
भुलाए न भूले है वो खेल में शैतानी।
यहां खेत में कहीं कुछ छुपाए थे कंचे,
कहीं खो गई वो बचपन की निशानी।
वो छत पे सोना और तारों को गिनना,
याद आती है अब परियों की कहानी।
आज नैनों में पानी और कश्ती है गुम,
हर वक्त अब रहती है कोई परेशानी।
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सुधीर कुमार
सरहिंद फतेहगढ़ साहिब पंजाब।