*कांच से अल्फाज़* पर समीक्षा *श्रीधर* जी द्वारा समीक्षा
Meri pustak कांच के अल्फाज़ par ShreeDhar ji jo sahitya aur kannon par likhte hai samiksha kee hai
वो इस मंच पर हमसे मार्च महीने में जुड़े हैं और खुद भी लाजवाब लिखते हैं 🌹🌹
Bahut achi tarah se likha unhone
Kitab to pdne ka samay nhi
Samiksha to atleast padiye.
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जब भी नई पुस्तक पढ़ता हूँ, मुझे कुछ समीक्षा लिखने का मन करता है। सिर्फ़ 53 पन्नों के काव्य-संग्रह- ‘काँच के अल्फ़ाज़’ पर लंबा रिव्यू लिखते-लिखते, यह समीक्षा नहीं, निबंध बन गया। लेकिन मुझे दिल से लिखना था, इसलिए मेरी कलम ने भी कंजूसी की नहीं। काश! मैं साहित्य का शैकीन नहीं, छात्र रहा होता तो जाने कितने बड़े और सुंदर रचनाकारों के साथ सुश्री सुरिंदर कौर जी की इस पुस्तक ‘काँच के अल्फ़ाज़’ पर भूमिका बांधता। नारी का लेखन, पुरुष लेखक की तुलना में ज्यादा गहरा, ज्यादा संवेदनशील और निजी जीवन का प्रतिबिंब होता है। पुरुष काफ़ी कुछ काल्पनिक कह लेते हैं, किंतु सच्चे अर्थ में गहरा लिखने वाली लेखिकाएं, अक्सर झकझोर देती हैं।
महान छायावादी कवयित्री महादेवी वर्मा जी से ज्यादा मार्मिक काव्य शायद ही कोई नारी लिखी होंगी। उनके बाद महादेवी जी के सोच से बिलकुल विपरीत स्वाभिमानी, खुले विचार से जीवन यापन करती रचनाकार अमृता प्रीतम। तीसरी ‘हम गुनहगार औरतें’ जैसी रचना लिखने वाली सन् 1940 में बुलंदशहर में जन्मी, पाकिस्तानी शायरा मोहतरमा किश्वर नाहीद, जिन्होंने आधुनिक हिंदी-उर्दू में औरत के असल दर्द और हक़ को इतनी शिद्दत से लिखा है कि, उनके सुख़न को दुनिया की तमाम ज़बानों में तर्जुमा करके पढ़ा जाता है।
मैंने पाया कि सुरिंदर जी के लेखन में वो दर्द, वो टीस है, वो बिरादरी है। भावनाओं, ज़ज़्बातों को पैमाने पर कम-ज़्यादा तौलना मेरे वश में नहीं, मैं बिरादरी और परंपरा की समानता को देख रहा हूँ। इसलिए मैंने उपरोक्त तीन महान महिला रचनाकरों की चार-छः पंक्तियाँ पहले उद्धृत की हैं-
मैं नीर भरी दुख की बदली!
स्पन्दन में चिर निस्पन्द बसा
क्रन्दन में आहत विश्व हँसा
नयनों में दीपक से जलते,
पलकों में निर्झारिणी मचली! —महादेवी जी वर्मा
——
वह सुनती रही।
उसने सुने आदेश।
उसने सुने उपदेश।
बन्दिशें उसके लिए थीं।
उसके लिए थीं वर्जनाएँ।
वह से निकली चीख,
कि जानती थी,
कहना-सुनना
नहीं हैं केवल क्रियाएं।—-अमृता प्रीतम जी
—-
ये हम गुनहगार औरतें हैं कि,
सच का परचम उठाके निकलें
तो झूठ से शाहराटें अटी मिले हैं
हर एक दहलीज़ पे सज़ाओं की दास्तानें रखी मिले हैं
जो बोल सकती थी, वो ज़बानें कटी मिले हैं। — किश्वर नाहीद जी (‘हम गुनहगार औरतें’ में ) .
ऐसे महान रचनाकारों को नमन के बाद, अब सुरिंदर कौर जी की रचनाओं के अंश, कृतित्व के बहाव के क्रम में ही उद्धृत करता हूँ । मैं अपनी राय कम रखूँगा, क्योंकि जो पाठक ऐसे गहन विषय पढ़ते हैं, उनका नज़रिया व्यापक होता है, वे स्वयं लेखन के मर्म और अर्थ को समझते हैं। ‘काँच के अल्फ़ाज़’ पुस्तक की शुरुआती रचनाएं ग़ज़ल फ़ारमेट में हैं। कुछ बानगी देखिएगा-
‘‘सोचती हूँ कहाँ भूल आई हूँ तुम को,
कुछ बातें खुद से, मैंने छिपाई तो थी।
उठते देखा था जब ज़नाज़ा वप़फ़ा का,
खुशक आँखें मेरी, डबडबाई तो थी।
—
तुम खाताएं करते जाओ, हम माफ़ करते रहें,
इंसान हैं कोई परवरदिगार नहीं हम–
रुख़्सत हो रहे हो, तो आंख नम भी न हो,
ख़फ़ा जरूर हैं, मगर सितमगार नहीं हम
—
बरसों साथ रहकर भी, पहचान नहीं होती,
लोगों की हर मुस्कुराहट, मुस्कान नहीं होती।
सांस ले रही हैं बहुत सी लाशें यहां,
जिंदा होकर भी जिनमें जान नहीं होती।
लो संभालो अपने महल, कोठी और कारें,
दौलत हर किसी का भगवान नहीं होती।
—
दर्द के साथ अब जीना सीख गए,
दर्द मगर बेजुबां नहीं होता।
बातों बातों में बात दिल की कह दी,
इश्क मगर, दो दफ़ा नहीं होता।
—
भूल गए हैं बहुत कुछ हम,
जाने तुम क्यों याद रहते हो?
—-
चलो आज लिखते हैं जिंदगी की किताब,
क्या खोया क्या पाया, करते हैं हिसाब।
—
क्यों मांगता फिरुं मोहलत,मौत से अपनी,
हसीं है मौत भी गर तू आस-पास है।
—–
कहना बहुत आसान है कागज पे उतार दो,
कैसे लिखूं लिखने को कुछ हौसला उधार दो।
—–
न अश्क बहा, उस शख़्स के लिए,
भूलने वाला इसके काबिल नहीं था।
बातें इश्क की सुनाते फिरते हो,
मगर इसका कोई हासिल नहीं था
—
कितने ख़ुदा बदले हैं तुमने,
ख़ुदा से क्यों ख़फ़ा रहते हो?
सर्द हवा के झोंकों में भी,
कैसे तुम तापते रहते हो?’’
अधिकाँश मिसरे, शे‘र, आम वोलचाल की जुबां में गहरी बात करते हैं। उनके सुख़न में इश्क़ है तो समंदर सा गहरापन भी है, दर्द है तो शांत है, चीखता नहीं, तजुर्बा है तो वो ख़ामोश बोलता रहता है। वे जो नहीं कहना चाहती, उनकी लेखनी कह देती है, जो सह लेना चाहती है, उसे उनकी कलम लिख लेती है। एक रचनाकार की अपनी दुनिया होती है, जहाँ एकांत है, पर अकेलापन नहीं, तन्हाई है मगर हिज्र नहीं। लेखक की महफ़ल उसके विचार और कलम कागज के साथ कभी भी सज लिया करती है। बेवफ़ा भी उसके लिए पात्र रह जाते हैं।
बहुत सारी रचनाएं कविता के स्वरूप में प्रकाशित हैं। कविताएं ज्यादा मुखर और सा़फ़ तस्वीर उनके आसपास की, उनके अनुभवों की और उनके निजी जीवन की कहती नज़र आती हैं। कवि कितना ही स्वयं से तटस्थ रहे, उसकी जाती ज़िंदगी, रचनाओं पर असर छोड़ते रहती है। मैं लेखिका के निजी जीवन से कदापि वाकिफ़ नहीं हूँ, किंतु जो मर्म वो कहती हैं, उनके व्यापक अनुभव और बहिर्मुखी सोच और समझ को साबित बनता है।
‘काँच के अल्प़फ़ाज़’ से कुछ काव्य-अंश मैं उद्धुत कर रहा हूँ। किसी टूटे रिश्ते पर वो इतनी सहजता से कहती हैं-
आफिस की टेबल पर से,
उचक कर मेरी कुर्सी को वो
ताकता जरूर होगा,
पता है मैं नहीं हूं फिर भी,
थोड़ा नाश्ता मेरे
लिए रखता ज़रूर होगा
—-
कुछ रईस घरानों को छोड़कर, यह रचना आम भारतीय नारी की असलियत कहती है। जब वे कहती है-
‘‘कुछ औरतें ज़िद नहीं कर पाती,
जब मायके से ज़िद करके ली हुई साड़ी,
सासू मां ननद को थमा देती है, बिन पूछे,
वह जिद नहीं कर पाती।’’
—
उनके प्रेम पात्र भी कलाप्रेमी हैं, वे कहती हैं-
‘‘मेरे हिस्से का वो वक़्त,
अब किसके साथ बिताते हो?
कौन सुनता है तुम्हारी रचनाएं,
कहां जाकर अब छपवाते हो?’’
—-
उदास होना चाहती हूं,
कुछ पल रोना चाहती हूं।
थक चुकी हूं मुस्कान लपेटे,
गम को भी अंदर समेटे,
अब पलकें भिगोना चाहती हूं,
हां कुछ पल रोना चाहती हूं।
तन्हाईयां ऊब गई मुझसे,
रानाईयां रूठ गई मुझ से,
कभी पाऊं खुद को तन्हा,
बस ऐसे ही खोना चाहती हूं,
कुछ पल रोना चाहती हूं।
—
बैठ के कड़वे नीम तले,
मीठी नज़्म में लिखते हो,
क्या अब भी चाय ठंडी हो जाती है?
क्या अब भी पहले जैसे हो? कहो जरा,
मेरे बिना तुम कैसे हो? कहो जरा।
—
कवयित्री की इन पंक्तियों से हमारे परंपरागत ढकोसलों के बीच, आम नारी का हाल और स्पष्ट होता है-
‘‘मैंने अपने हक़ की बात,
जब भी करनी चाही,
मुझे पायल, बिछुआ, सिंदूर में
उलझा दिया गया,
मंगलसूत्र पति परमेश्वर
समझा दिया गया।’’
—
जी हां घर,
जिसपर मेरे नाम की कोई तख़्ती नहीं,
लेकिन घर है मेरा
—–
और बिना किसी आधुनिक बनावट के होने वाले प्रेम पर ये पंक्तियां पढ़िए-
‘‘कुछ ख़त भी रखे होंगे,
किसी पुस्तक के पन्नों में छुपाए,
जो तुमने कभी मुझे दिए नहीं।
एक डायरी में कुछ सूखे गुलाब भी होंगे,
जो अनायास कभी निकल आए तो,
तो यादों में खो जाते होगे तुम।’’
—-
और जरूरतमंद परिवार और अभावों के बीच उत्तरदायित्व निभाती बहन, बेटी या औरत की व्यथा देखिए-
‘‘बंद कमरों में,
जबरन या मजबूरी में,
तब टूटता तो ज़रूर कुछ है अंदर,
घुट जाता है दम,
असंख्य कामनाओं का
इन बिस्तर की सिलवटों पर।
मां की दवाई,
बहन की पढ़ाई,
भाई की फीस,
पिता न होने की टीस,
सब छुप जाता है,
बिस्तर की सिलवटों में।’’
—
बरसात राजनीति की होने को थी,
खून से वस्त्र सबके भिगोने को थी
—-
मन के बंधन,
तन पर दिखने लगते हैं
—-
और ‘मैं बहरी हो गई’ नाम से कविता में कवयित्री अपने कवित्व के प्रति आत्मसम्मान से मुखर होकर बोलती है-
‘‘लेकिन मैं नहीं रुकी, ना रुकूंगी कभी,
लिखना मेरा जुनून है
मेरी रूह की खुराक।
क्यों रुकूं मैं ?
मुझे बढ़ाना है आगे,
खंगालना है क्षितिज को,
मैं अब नहीं रुका सकती,
अब मैं बहरी हो गई हूं।’’
—–
‘अबोध बच्ची’ नाम की उनकी कविता, बलात्कार पीड़ित एक नाबालिग लड़की के दुःखद हश्र को शब्दों में तस्वीर की तरह उकेर देती है।
‘‘वो जानवर बन गया,
जमीन पर पटका मुझे,
अपनी हवस पूरी—-,
छोटी सी मैं, फूल सी,
बहुत दर्द हुआ मां,
सारा बदन छिल गया मेरा मां,
मैंने पुकारा था तुम्हें और बाबा को मां—–
पुलिस केस बन गया,
मुख्यमंत्री ने घोषित किया,
इलाज का खर्च सरकार करेगी,
इतनी इंफेक्शन बढ़ गई कि,
मेरी बच्चेदानी निकालनी पड़ी,
और फिर भी मैं ज़िंदा हूं।’’
—
अगली रचना ‘औरत का कमरा’ में वे कहती हैं –
‘‘जरूरत नहीं मुझे महलों की,
चाहिए बस एक कोना,
जहां हो सके आराम से,
मेरा खुद का हंसना-रोना।’’
—-
‘सच कहना’ नाम की कविता में कवयित्री का दर्द मिश्रित-आत्मसम्मान दिखता है–
‘‘इतना आसान तो नहीं रहा होगा,
मेरे बिन जीना,
याद तो बहुत आती होगी मेरी,
जब शीशे पर चिपकी
मेरी बिंदी देखते होगे,
काम से थके हारे आकर। —-
लेकिन मैं,
अब वहां नहीं हूं,
मैं वस्तु नहीं हूं, न थी, न बनूंगी,
मैंने नई राहों पर पग धर लिया,
अब पीछे नहीं है मेरा कुछ भी।’’
—
वे अमृता प्रीतम जी की उथलपुथल भरी निजी ज़िंदगी पर चंद शब्दों में जैसे उनका जीवन सार कह देती हैं-
‘‘आसान नहीं अमृता होना,
जहर के घूंट रोज पीना,
कितना कुछ अंदर दफ़न किया,
कितना बाहर उड़ेला उसने,
कौन जाने।’’
—
हर उम्र को शानदार बनाकर जीना ही ज़िंदादिली है। ‘खूबसूरत बुढ़ापा’ में वे कहती हैं-
‘‘बहुत खूबसूरत होता है बुढ़ापा,
चेहरे पर आड़ी तिरछी रेखाएं,
बताती हैं जीवन की पूरी ज्योमेट्री,
कितने कोण तक झुकना है तुझे,
कितने त्रिभुज हैं जीवन में,
सच बताता है ये खूबसूरत बुढ़ापा।’’
—
और अंततः जननी। माँ की संगत हो या स्मृतियाँ , हर उम्र में हमें सहारा देती है। हर मुसीबत में माँ से आसरे का आभास। सुरिंदर जी, जहां तक मेरी समझ है, स्वयं दादी/नानी हैं। लेकिन उन्हें आज भी माँ का सहारा चाहिए, माँ की ममता, उनका आश्रय चाहिए। माँ जिन्हें हम, हर उम्र में प्रत्यक्ष या परोक्ष अपना दुःख कह पड़ते हैं। गर्भ में पालने वाली माँ सर्वज्ञाता और सर्वशक्ति हुआ करती है। आखिरी रचना में कवयित्री कहती हैं-
‘‘अब बहुत याद आती हो माँ !
जब भी आईना देखती हूं
नज़र आती हो तुम मुझमें
नहीं भूल पाती,
एक पल भी तुम्हें माँ !’’
प्रकाशन- दिल्ली के दरियागंज में पुश्तों से बैठे हिंदी पुस्तक प्रकाशन के सैंकड़ों ठेकेदारों पर, इन नये युवा प्रकाशकों ने अच्छी नकेल कसी है। इन नये लोगों में अहंकार नहीं है। वे आम लेखक को भी इज्ज़त देते हैं। ‘साहित्यपीडिया.कॉम’ बहुत समर्पित प्रकाशन-टीम है, इसके प्रामेाटर युवा अभिनीत मित्तल जी से मैं अक्सर बात करता हूँ। इसी तरह ‘राजमंगल प्रकाशन’ में धर्मेन्द्र जी। ‘राजमंगल’ तो बहुत उम्दा प्रकाशन स्तर पर पहुँच चुका है। दरियागंज जैसा ‘केहि न राजमद कीन्ह कलंकू’ वाला प्रदूषण इन नये प्रकाशकों से अभी बहुत दूर है।
‘काँच के अल्फ़ाज़’ की कीमत वाज़िब रु-150/- है। फ्लिपकार्ट पर रु. १२० मात्र। ‘साहित्यपीडिया.कॉम’ ने बहुत सावधानी से सुंदर छपाई की है। सुरिंदर जी और प्रकाशक ने टाइपिंग अशुद्धता से बचाया है। काश! पुस्तक का कवर हल्का पेपर बैक होता, पूर्णतः लचीला । ‘साहित्यसपीडिया’, इस सिरीज में 50 रचनाकारों की किताबें छापने वाला है। अन्य पुस्तकों में फांट ज्यादा बोल्ड एवं कवर ज्यादा लचीला रखने के लिए मैंने प्रकाशक को भी लिखा है। सुरिंदर जी का ‘काँच के अल्फ़ाज़’, कलेवर में, डिजाइन में सुंदर है, आकर्षक है। एक सौम्य, सुसंस्कृत अनुभवी पंजाबी लेखिका द्वारा प्रकाशित, पठनीय और संग्रहणीय काव्य संकलन।
‘काँच के अल्फ़ाज़’ को ऑनलाइन खरीदने के तीन विकल्प प्रकाशक ने नीचे दिए हैं–
Kaanch Se Alfaaz – Sahityapedia
कांच से अल्फाज़ मेरा हिंदी भाषा में लिखा दूसरा काव्यसंग्रह है। मेरी इन कविताओं में कहीं इश्क की बात है कहीं विरह की। कुछ कविताएं स्त्री विशेष पर है जो पितृसत्तात्मक समाज को चुनौती देती है और नारी मन की उत्कंठा को दर्शाती है। इन्हें आप सिर्फ पढ़िए नहीं, रूह से महसूस कीजिएगा।
https://sahityapedia.com/book/kaanch-se-alfaaz-pb/
Kaanch Se Alfaaz
कांच से अल्फाज़ मेरा हिंदी भाषा में लिखा दूसरा काव्यसंग्रह है। मेरी इन कविताओं में कहीं इश्क की बात है कहीं विरह की। कुछ कविताएं स्त्री विशेष पर है जो पितृसत्तात्मक समाज को चुनौती देती है और नारी मन की उत्कंठा को दर्शाती है। | इन्हें आप सिर्फ पढ़िए नहीं, रूह से महसूस कीजिएगा।
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