क़िताब ज़िंदगी की
कभी गम कभी खुशी के दौर से गुजर रहे हैं,
ये किताब है जिंदगी की जिसे हम पढ़ रहे हैं।
कितनी भूले कितनी सीखें कितनी समझ दिखाई है,
कहां-कहां हम फिसले कितनी ठोकर खाई है।
झूठ और सच्चाईयों के दौर से गुजर रहे हैं ,
यह किताब है जिंदगी की जिसे हम पढ़ रहे हैं।
कोरे पन्ने लेकर आये जिंदगी की किताब हम ,
कर्म की स्याही से शब्द इसमें बिखर रहे हैं।
परिस्थितियां क्या-क्या लिख जाती है इसमें,
क्या कब कुछ लिखना न चाहा था हमने खुद ,
समय के दौर में हम कितना कुछ बदल रहे हैं।
ये किताब है जिंदगी की जिसे हम पढ़ रहे हैं।
पाप और पुण्य की उलझन हमें उलझाती है,
अधिक अच्छाई भी हमारी हमें दोषी बनाती है,
सच्चाई के रास्ते पर ही सुकून से संभल रहे हैं।
अजीब किताब है जिंदगी की जिसे हम पढ़ रहे हैं।
पाक दामन जिंदगी पे न कोई सिलवट आने देंगे,
सत्कर्म पर ही रोज हम अपने अफसाने लिखेंगे।
सोच कर ही हम यहां तूफानों से उलझ रहे हैं,
किताब है अपनी जिंदगी की जिसे हम पढ़ रहे हैं।
स्वरचित एवं मौलिक
कंचन वर्मा
शाहजहांपुर
उत्तर प्रदेश