क़ाम कुछ कर न कर बस काम की फ़िकर कर
क़ाम कुछ कर न कर बस काम की फ़िकर कर
हर किसी के रू-ब-रू फ़िकर का ज़िकर कर
ना- समझ हैं जो समझ बैठे आसां है
मंज़िल तो मिलेगी मुश्किलों से गुज़रकर
आई है जब- जब ताक़त सिवा दे गई
ए- ख़ुदा कुछ और मुझे मुश्किलें नज़र कर
कुछ धड़क ए दिल कुछ शोर मचा सीने में
हां कुछ तो जवानी की मुझको ख़बर कर
खिला है ताज़ा- ताज़ा कोई गुल कहीं
चली आई हवा ख़ुश्बू से संवर कर
मुक़र्रर है ये सज़ा परवरदीगार से
गर तू गुलाब है तो खारों में बसर कर
रूह में उतर जाय या रब लिखा ‘सरु’का
ऐसा मिरी क़लम के लफ़्ज़ों में असर कर