कहीं हैं दूर कहीं हैं क़रीब आवाज़ें।
कहीं हैं दूर कहीं हैं क़रीब आवाज़ें।
फ़ज़ा में गूँज रही हैं अजीब आवाज़ें।
जवाब देते नहीं क्यों निकल के घर से तुम।
कि आज देता है तुम को रक़ीब आवाज़ें।
सदा ग़रीब की सुनता नहीं है कोई भी।
किसे लगाए भला ये ग़रीब आवाज़ें।
जो हक़ के वास्ते उठती हैं अब ख़लाओं में।
भटकती रहती हैं वो बद-नसीब आवाज़ें।
जहान ए फ़ानी से हो जाएगा वो रुख़्सत जब।
मरीज़ ए इश्क़ को देगा तबीब आवाज़ें।
कहाँ वो नग़्मगी मिलती है आज बाग़ों में।
कि खो गई हैं तिरी अन्दलीब आवाज़ें।
‘क़मर’ वो तख़्त नहीं और वो महल भी नहीं।
लगाए भी तो कहाँ अब नक़ीब आवाज़ें।
जावेद क़मर फ़िरोज़ाबादी