कहीं और बसेरा
कहीं और बसेरा
छोटे-छोटे धरती के टुकड़े, जो भी जैसे मिले तुम्हें नर!
ईंटे पत्थर जोड़ के उन पर, खुश हो अपना महल बनाकर।
खड़े हो गए महल हजारों, ऊंची से ऊंची अट्टालिकाएं
चाह तुम्हारी जस की तस , अब भी क्या सिमटी इच्छाएं?
रे नर! तेरे तो दिन निश्चित हैं, किराए की यह जगह तुम्हारी
जीवन सारा ही गिरवी है, हिसाब है उसका पाई पाई।
चाहे जितनी रही अमीरी, किसके साथ गई पंजीरी?
जिसने भारी गठरी बांधा, कहां गई वह गठरी सारी?
जितना भी है कम लगता है, मिला है जो थोड़ा लगता है
संचय हित तूं भूला सब कुछ, लेकिन यह माया का घर है।
यह घर कभी रहा क्या तेरा? यह तो चंद दिनों का फेरा
असल कहीं पर और है डेरा, नर तेरा कहीं और बसेरा।
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–राजेंद्र प्रसाद गुप्ता, मौलिक/स्वरचित ।