हे चंदा ! नारंगी गोला
हे चंदा ! नारंगी गोला….
हे चंदा! नारंगी गोला, सांझ ढले तुम आते हो।
नभ में जब छाता अंधेरा, बैठ वहां मुस्काते हो।
सूरज छिप जाता, थक कर दुनिया सो जाती है,
तब नीले इस नभ में तूं, हंसते-हंसते चलते हो।
अंधेरे में तूं ले उधार, कुछ प्रकाश दिनकर से,
धरती मां को करते प्रसन्न, तुम उस प्रकाश से।
लगाते चक्कर पृथ्वी का, पास नहीं आते हो,
कैसा है अभिशाप कहो,मां से मिल ना पाते हो?
इस धरती से कोई कभी गया था मिलने तुमसे
तुम्हारी क्या उससे बात हुई थी, कभी कहो ना।
वह भेद है क्या, जो मुस्कुरा कर छुपा रहे तुम?
क्या भेजे थे संदेशा? राज आज तुम खोलो ना।
हे चंदा! नारंगी गोला…………
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–राजेंद्र प्रसाद गुप्ता, मौलिक/स्वरचित।