(कहानी) “सेवाराम” लेखक -लालबहादुर चौरसिया लाल
(कहानी )
“सेवाराम”
लेखक- लालबहादुर चौरसिया ‘लाल’
मई माह की झुलसा देने वाली गर्मी चरम पर थी। सेवाराम की लाडली पौत्री स्नेहा की शादी बिल्कुल करीब थी। सेवाराम के माथे पर चिंता की लकीरें समुद्री लहरों के समान उठ रही थी। काफी दान दहेज, बारातियों की आवभगत, लाइट, जनरेटर, टेंट, सजावट, कैटरिंग कहां से आएगा इतना सारा पैसा। इन प्रश्नों पर ध्यान जाते ही सेवाराम का दिल बैठ जाता था। लेकिन मन को समझाए जा रहे थे। “सबको पैसा तो शादी के बाद ही देना पड़ता है, देते रहेंगे, कोई फांसी पर थोड़े ही चढ़ा देगा, आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों, सभी अपना-अपना पैसा लेते रहेंगे।” ऐसा विचार सेवाराम के मन को ठंडक अवश्य दे रहा था। लेकिन दरवाजे पर तिलक के तीन लाख कहाँ से लायेंगे। बस यही चिंता उन्हें खाए जा रही थी।अभी भी इकलौते बेटे मनोहर की चिता उनके सीने में दहक ही रही थी। मात्र चार माह पूर्व इकलौते पुत्र मनोहर की मौत ब्रेन हेमरेज से हुई थी। स्नेहा के विवाह के लिए वर्षों से जोड़-जोड़ कर रखा गया धन मनोहर के इलाज में स्वाहा हो चुका था।
सेवाराम एक मध्यमवर्गीय परिवार के मुखिया थे। परिवार में पत्नी, तीन पुत्रियों व एक पुत्र मिलाकर कुल छः सदस्य थे। बेटे का नाम मनोहर था। मनोहर बचपन से ही काफी तेज-तर्रार था। पढ़ाई में अपनी कक्षाओं में आव्वल आता था। मनोहर की पढ़ाई सिर्फ हाई स्कूल तक ही हो पाई थी। घर की जिम्मेदारियाँ अधिक थी।सारी जिम्मेदारियों का बोझ सेवाराम अकेले उठाने में असमर्थ थे। इसलिए मनोहर को अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ी और पैसों की तलाश में बाहर निकलना पड़ा। समय बीता। सेवाराम की तीनों बेटियों का विवाह हुआ। कुछ ही वर्षों बाद बेटे मनोहर का भी विवाह हो गया। मनोहर की पत्नी राधा की कोख से एक पुत्र और एक पुत्री ने जन्म लिया। पुत्र छोटा था। पुत्री बड़ी थी जिसका नाम था स्नेहा।सौंदर्य की प्रतिमूर्ति स्नेहा बीए की पढ़ाई समाप्त कर के बीएड की तैयारी में लग गई। स्नेहा विवाह के योग्य हो गई थी। सयानी व अविवाहित बेटियां परिवार पर किसी बड़े बोझ से कम नहीं होती। खासकर पिता के कंधों पर तो कठोर व विशाल शिला सी टिकी रहती हैं। हालांकि पिता कभी ऐसा प्रकट नहीं करता। कास कोई ऐसा यंत्र होता जो पिता के कंधों पर पड़ रहे दबाव का सही-सही आकलन कर सके। काफी दौड़-धूप के बाद मनोहर को स्नेहा के लिए लड़का मिल गया। लड़का किसी सरकारी दफ्तर में बाबू के पद पर कार्यरत था। नाम था हेमचंद। हेमचंद और स्नेहा की जोड़ी कुछ असहज जरूर थी। लेकिन सरकारी कमासुत लड़के असहज स्थिति को भी सहज बनाने में सक्षम होते हैं। उनकी सरकारी तन्ख्वाह के समक्ष उनके रंग रूप गौड़ हो जाते हैं। हेमचंद रामअचल का इकलौता बेटा था। रामअचल एक संपन्न व्यक्ति थे। दस-बारह बीघा उपजाऊ जमीन, ट्रैक्टर ट्राली,राइस मिल, ईंट भट्ठा मिला-जुला कर घर में पैसों का अच्छा स्रोत था। मनोहर को विश्वास था कि मेरी बेटी रामअचल जी के घर सुखी रहेगी।
विवाह तिथि सुनिश्चित हुई। दोनों तरफ से वैवाहिक तैयारियां होने लगीं। वर पक्ष से फरमाइशों की लम्बी लिस्ट मनोहर के पास आई। इतने बाराती आयेंगे। जलपान में ये, खाने में वो,फलां रंग की गाड़ी,तिलक पर इतना। गले की चेन इतने ग्राम की,टीवी, वाशिंग मशीन, एसी, फ्रिज, सोफा ब्रांडेड होना चाहिए। जयमाल स्टेज इस डिजाइन का होना चाहिए। एक बाप अपनी बेटी की खुशी के लिए अपने निजी सपनों को हवनकुंड की अग्नि में झोंक देता है। बेचारे मनोहर जी रामअचल की सारी बातें मानते चले गए। वे इस बात से आश्वस्त थे कि बेटी का रिश्ता एक सम्पन्न परिवार में होने जा रहा है। इतना खर्च तो करना ही होगा। धीरे-धीरे सब कुछ फिक्स होने लगा।
नियति पर नियंत्रण असंभव है। होनी को कुछ और होना था। अचानक मनोहर की ब्रेन हेमरेज से हुई मौत सेवाराम के परिवार पर कहर बनकर टूट पड़ी। मनोहर की मृत्यु से एक हँसता खेलता परिवार उजड़ गया। परिवार के सपने बिखर गए। स्नेह के विवाह के मात्र चार माह पूर्व हुई इस घटना ने परिवार के प्रत्येक प्राणी को झकझोर डाला। विवाह तो सुनिश्चित था इसलिए टाला नहीं गया।
डीजे का कनफोडू स्वर चालीस के पार लोगों को पीड़ा दे रहा था। वहीं तीस से कम उम्र वालों को मदहोश किए जा रहा था। बाराती डीजे के पीछे-पीछे अपनी-अपनी स्टाइल के डांस में मशगूल थे। बारात सेवाराम के दरवाजे पर पहुंची। कुछ घराती व बाराती आतीशबाजी देखने में मस्त थे। फुलझड़ी के तीव्र उजाले से आँखे चौंधिया जा रही थीं। अनार पर जैसे ही माचिस की जलती तीली पड़ती, ऐसा लगता कि कोई सुशुप्त ज्वालामुखी जाग्रत हो गया हो। राकेट पलक झपकते ही हवा से बातें करने लगते और एक जोरदार धमाके के साथ विभिन्न रंगों की चिनगारियां बिखेर देते। ऐसा लगता मानो तारों का विशाल झुण्ड रंगीन लिबास में धरती की ओर बढ़ रहा हो। कुछ बच्चे पटाखों के खाली हुए खोखे लूटने में मस्त थे। नाश्ता करने वाले मिठाई,चाट पकौड़े, चाऊमीन, मंच्यूरियन कुल्फी इत्यादि पर टूट रहे थे। भोजन करने वाले बड़ी शान से खाली प्लेट लिए भोजन स्टाल की तरफ बढ़ रहे थे। भोजन स्टाल पर अचानक भीड़ ज्यादा होने से कुछ लोग असहज हो जा रहे थे। कुछ सभ्य किनारे खड़े होकर भीड़ के हल्का होने का इंतजार कर रहे थे।
चावल व गेहूं के स्वक्ष आटें से उकेरे गए अल्पना आलेखन पर द्वारचार की रस्में निभाई जा रही थी। सेवाराम पुरोहित के निर्देशों का पालन कर रहे थे। तब तक एक ऊँची आवाज सेवाराम के कानों में दनदनाती गोली की तरह प्रविष्ट हुई।
“तिलक के तीन लाख रुपए कहाँ हैं?”
सेवाराम का ध्यान पुरोहित से हटकर उस आवाज की तरफ केंद्रित हो गया। उन्होंने देखा कि यह आवाज लड़के के पिता अर्थात रामअचल की ही थी। सेवाराम के कंठ जैसे सूख गए। धमनियों में रक्त प्रवाह गति अंतिम सोपान तक पहुंच गई ।उन्हें यूँ लगा कि जैसे पाँव के नीचे की धरती गायब है। अपने आप को नियंत्रित करते हुए रामअचल जी से बोले, “समधी बाबू आप घबराएँ नहीं। रूपयों का इंतजाम हो जाएगा। हम विवाहोप्रांत कुछ ही दिनों में दे देंगे।”
सेवाराम की ऐसी बातें सुनकर रामअचल तुनक गए। गरजे, “नहीं नहीं, मैं यह कदापि नहीं सुनना चाहता। रुपए चाहिए तो इसी वक्त चाहिए। नहीं तो…….,अभी रामअचल कुछ कहने ही वाले थे की सेवाराम अपनी पगड़ी सर से उतर कर रामअचल के पाँव पर रख दिए और बिलख पड़े, “रामअचल बाबू हमारी इज्जत आपके हाथों में है। हम इस वक्त बहुत मजबूर हैं। अभी हमने जवान बेटे की मौत का दंश झेला है। विवाह के लिए जो भी धन रखा गया था सब बेटे के इलाज में खत्म हो गया। हमपर रहम खाइए। मैं आपसे वादा करता हूं कि आपको तिलक का पूरा पैसा जल्दी ही दे दूंगा।”
सेवाराम की ऐसी असहाय स्थिति से रामअचल थोड़ा विचलित जरूर हुए लेकिन यह क्षणिक ही था। मदांध या संवेदनहीन को किसी के सुख-दुख की चिंता कहाँ । पैर पर रखी पगड़ी से दूर हटते हुए बोले, “यदि आप इस समय पैसे देने में अक्षम हैं तो यह विवाह कुछ दिनों के लिए रोक दीजिए। जब आप सक्षम हो जायेंगे तब हमें सूचित करिएगा। मैं पुनः बारात लेकर आऊंगा लेकिन इस समय तो विवाह नहीं हो सकता। ऐसा कहते हुए बेटे और बारातियों को वापस चलने का निर्देश देते हुए वहां से निकलने लगे। महिलाओं का मंगल गान शांत सभा में बदल उठा। डीजे की आवाज धीमी हो गई। बैंडबाजे बंद हो गए। सभी आपस में फुसफुसा रहे थे। सेवाराम की डबडबाई आँखें, जाते हुए बारातियों की तरफ टकटकी लगाए देख रहीं थीं मानों महीनों के भूखे व्यक्ति के सामने से भोजन भरी थाल हटा दी गई हो या यूँ कहिए कि जैसे जुआरी अपना सब कुछ गंवा कर जीते हुए प्रतिद्वंद्वी को पीड़ा व प्रतिशोध की मुद्रा में निहार रहा हो। वैवाहिक उत्सव मरघट में तब्दील हो चुका था। महिलाएं आपस में बुदबुदा रही थीं, “अरे बेचारे पर कितना बड़ा अन्याय हो गया,अभी भगवान ने विपत्ति डाली ही थी कि एक और विपत्ति का पहाड़ उस आदमी ने ही गिरा दिया। सत्यानाश हो उसका।” शामियाना बारातियों से खाली हो चुका था। कुछ घराती अभी जमे थे।
उसी समय एक चमचमाती कार सेवाराम के दरवाजे के ठीक सामने आकर रुकी। लोगों का ध्यान कार की तरफ गया। कार से तीन लोग बाहर निकले। तीनों चहल कदमी करते हुए सेवाराम की तरफ बढ़ने लगे। आगे आते हुए व्यक्ति पर जैसे ही सेवाराम की नजर पड़ी, चौंक उठे। मुख से हल्की आवाज निकल पड़ी “अरे! प्रभु दयाल बाबू।” यह कहते हुए दौड़े और प्रभु दयाल को अपने दोनों हाथों से भीचकर लिपट गए। प्रभुदयाल से लिपटना उन्हें ऐसा लग रहा लगा जैसे कोई बदल का टुकड़ा सूर्य की आग उगलती रश्मियों के नीचे कुछ पल के लिए ठहर गया हो। किंतु घोर पीड़ा में यदि कोई अपना दिख जाए तो पीड़ा का प्रलाप व आयतन कुछ समय के लिए बढ़ जाता है। सो ऐसा ही हुआ। सेवाराम प्रभुदयाल से लिपटकर फूट-फूट कर रोने लगे। प्रभुदयाल सेवाराम की पीठ पर किसी रोते बालक की तरह थपकी देकर चुप कराने का असफल प्रयास करते रहे। आज सेवाराम को लगभग पच्चीस वर्ष पुरानी विस्मृत बातें स्मरण हो आई।
कितना भीषण ट्रेन हादसा। बोगियाँ एक दूसरे पर ऐसी चढ़ी थी कि जैसे किसी शरारती बच्चे ने खिलौनों को तोड़ ताड़कर किसी कोने में फेंक दिया हो। चारों तरफ चीख ही चीख सुनाई दे रही थी। निशा अपनी चादर समेट उषा के आगमन का इंतजार कर रही थी। उसी समय सेवाराम के घर से कुछ ही दूरी पर बने क्रॉसिंग लाइन से सौ मीटर आगे दो ट्रेनों की आमने-सामने की टक्कर हुई। धमाका इतना जोर था कि कई किलोमीटर के परिध में लोग चौंक गए। ट्रेन हादसे की खबर समीपवर्ती गांवों में जंगली आग की तरह फैल गई। जो जैसे सुना वो वैसे दौड़ा। सेवाराम भी बरामदे में सोए थे। चौक कर उठ गए। पता चला कि क्रॉसिंग पर दो ट्रेनों की भयानक टक्कर हुई है। वे भी दौड़ पड़े। कोई कहाँ गिरा था, कोई कहाँ। लोगों की चीख पुकार का बड़ा ही भयानक मंजर था। ट्रेन हादसा हुए आधा घंटे बीत चुके थे। अभी कोई सरकारी राहत दस्ता वहां मौजूद नहीं हुआ था। सिर्फ गांव के ही लोग फंसे लोगों को निकाल रहे थे। वहाँ पहुंचे सेवाराम की निगाह खून से लथपथ एक अधेड़ व्यक्ति पर पड़ी। सर से लेकर आधा शरीर बर्थ सीट के नीचे अटका था। सेवाराम किसी तरह उसके नजदीक गए। उस व्यक्ति की चोट और पीड़ा से आंखें बंद थी। सिर्फ वह कराह रहा था। सेवाराम जैसे ही उसे अपने हाथों से पकड़ कर उठने का प्रयास किए घायल व्यक्ति चीख उठा, “बचा लो बाबू, मुझे बचा लो।” सेवाराम उस घायल व्यक्ति को खींचकर बाहर निकाले। उसे खड़ा करने का प्रयास करने लगे। किंतु सेवाराम का प्रयास असफल हुआ। शायद उस व्यक्ति का दाहिना पैर टूट गया था। सेवाराम उसे अपनी पीठ पर लादे अपनी पूरी ऊर्जा से के साथ दौड़ते हुए पास के एक निजी अस्पताल में ले गए। खून बहुत ज्यादा बह गया था। डॉक्टरों ने फौरन इलाज शुरू किया। डॉक्टर ने कहा इन्हें ब्लड की आवश्यकता है। सेवाराम ने अपना खून दिया। लगभग एक घंटे बाद व्यक्ति को होश आया। घायल व्यक्ति ने अपना नाम रघुराज प्रताप सिंह व वाराणसी से सटे हुए किसी गांव का निवासी बताया। वे किसी काम से इधर आए थे। ट्रेन हादसे की सूचना रघुराज सिंह के घर पर पहुंची। घर पर कोहराम मच गया। दोपहर होते-होते रघुराज के पुत्र प्रभु दयाल भी आ गए। सेवाराम ने राहत की सांस ली। प्रभु दयाल को जब यह पता चला कि यही व्यक्ति हैं जिन्होंने मेरे पिताजी के प्राणों की रक्षा की और उन्हें अपने पीठ पर लादकर पैदल यहां तक लाए थे। ईश्वर का लाख-लाख धन्यवाद करते हुए सेवाराम के पैरों को चूम लिया। एक क्षण के लिए मौन हो गए। सोचने लगे “अभी मानवता जिंदा है। दुनिया ऐसे ही नि:स्वार्थ लोगों की बदौलत टिकी हुई है।” सेवाराम को एक विजिटिंग कार्ड देते हुए प्रभु दयाल ने निवेदन किया-
“काका यदि कभी बनारस आइएगा तो हमारे यहां जरूर आएगा।”
रघुराज प्रताप की स्थिति कुछ ठीक नहीं थी। प्रभु दयाल उन्हें बड़े अस्पताल में ले जाने की तैयारी में लग गए। जाते समय रघुराज जी ने सेवाराम का हाथ पकड़ लिया,
“भैया यदि आप आज नहीं होते तो मेरी जान नहीं बचती हमारे यहां जरूर आइएगा।”
प्रभु दयाल उन्हें लिवाकर चले गए।
जनवरी की भीषण ठंड थी। सेवाराम जी किसी काम बस वाराणसी गए हुए थे। काम निपटा कर गांव वापस होने को थे। उन्हें याद आया “अरे यही कही रघुराज प्रताप जी का गांव भी है। चलिए उनसे मिलता चलूं, देखूं उनकी क्या हाल-चाल है।”
बाबू रघुराज प्रताप सिंह एक संपन्न व्यक्ति थे उनके अंदर बड़मन्साहत थी। बड़े ही उदार, नेक दिल, व सच्चे इंसान थे। यतीमों व गरीबों के लिए तो वे साक्षात भगवान थे। छोटे तबके के लोग उन्हें बहुत स्नेह देते थे। यह उनकी धौंस नहीं उदारता थी। ट्रेन हादसे को हुए लगभग छः माँह हो गए किंतु अभी भी हाल चाल लेने वालों का जमावड़ा लगा रहता था। रघुराज जी के पैरों का प्लास्टर निकल चुका था। डॉक्टर ने हाथ में छड़ी लेकर चलने का निर्देश दिया था। दरवाजे के सामने आम की बड़ी ही विशाल बाग थी। इसी बाग के बगल से एक रास्ता था जो रघुराज प्रताप सिंह के घर पर जाता था। सेवाराम जी वही रास्ता पकड़ कर उनके घर पहुंचे। बरामदे के बाहर बड़ा सा अलाव जल रहा था। लोग अलाव के परिधि में बैठ हड़कपाऊ ठंडक से बचने का प्रयास कर रहे थे। कुछ गपशप भी चल रहा था। रघुराज प्रताप एक तख्ते पर अपना आसन जमाए हुए थे। इसी बीच सेवाराम पहुंचे। सेवाराम को देख रघुराज जी उछल पड़े,
“अरे!आइए आइए भैया। आप तो हमारे भगवान हैं। यदि आप नहीं होते तो आज मेरा क्रिया कर्म हुए महीनों बीत गया होता।”
” ऐसा मत कहें बाबू साहब,जब तक मालिक की मर्जी नहीं है, तब तक कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकता और बताइए इस समय कैसे हैं?”
” ठीक हूँ सेवाराम भैया। अभी पैर में थोड़ी दर्द है।”
“धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा।”
रघुराज जी ने फौरन अपने बेटे प्रभु दयाल को बुलाया प्रभु दयाल तत्काल आए और सेवाराम को देखकर भाव विह्वल हो गए।
“अरे काका जी आप। अहोभाग्य हमारे कि आप पधारे।” ऐसा कहते हुए प्रभु दयाल ने सेवाराम को प्रणाम किया। रघुराज प्रताप का पूरा परिवार सेवाराम की सेवा में लग गया। जैसे आज सचमुच भगवान उतरे हो। पूरे परिवार से मिलकर सेवाराम भी बहुत प्रसन्न हुए। अगले दिन सेवाराम वहाँ से अपने घर के लिए लौटे।
सेवाराम जब भी वाराणसी जाते तो बाबू साहब के यहाँ एक रात तो बिता कर ही लौटते। किंतु पिछले पच्चीस वर्षों से सेवाराम वाराणसी नहीं गए। ना तो रघुराज सिंह की कोई हाल खबर ही मिली। प्रभु दयाल के दोनों बेटे बड़े ही होनहार व कुशाग्र बुद्धि के थे। दोनों ने साथ-साथ पढ़ाई की और साथ-साथ नौकरी में लग गए। लगभग बयासी साल की उम्र में रघुराज प्रताप सिंह का स्वर्गवास हुआ। रघुराज का देहांत हुए एक वर्ष बीत चुका था। घर की पूरी जिम्मेदारी प्रभु दयाल जी संभाल रहे थे। प्रभु दयाल जी बरामदे में बैठे थे,अकस्मात उन्हें सेवाराम जी की याद आ गई “सेवाराम जी को देखे काफी समय हो गया। पिताजी भी हमेशा सेवाराम जी को याद करते थे। ऐसे नेक इंसान को मैं भूल ही गया हूं। पता नहीं वे किस हाल में होंगे।” अगले ही दिन प्रभु दयाल जी शाश्वत व तन्मय को साथ लेकर उनके परिवार का हाल-चाल लेने के लिए निकल पड़े।
सेवाराम, प्रभुदयाल के कंधे पर अपना सर रख कर पीड़ा व बिछोह की आग में दहक रहे थे। आज सेवाराम को इस तरह रोता देख प्रभु दयाल जी अत्यंत दुखी हो उठे।
“चुप हो जाइए काका! कुछ तो बताइए क्या बात है?”
सेवाराम ने अपने बेटे की मृत्यु और पौत्री के आज टूटे रिश्ते का सारा वृत्तांत सुनाया। प्रभुदयाल की आँखे भींग गईं।
“अफसोस! काका इतना घोर संकट। यह तो बहुत बुरा हुआ। मैं तो इतने वर्षों बाद आपसे मिलने आया था। अपने इन दोनों पुत्रों शाश्वत और तन्मय को भी आपसे मिलवाने लाया था।”
“अरे यह आपके दोनों जुड़वा बेटे! ये दोनों जब गोंद में थे तबका देखा था। आज इतने बड़े हो गए।”
सेवाराम ने शास्वत और तन्मय को अपने सीने से लगा लिया।
“हां काका अब तो इनकी सरकारी नौकरी भी लग गई है।”
दोनों ने सेवाराम के पाँव छूए।
“जुग जुग जिओ बेटों। जीवन में कभी कोई परेशानी ना आए।”
ऐसा कहते हुए सेवाराम पुनः फफक पड़े। प्रभु दयाल ने संभाला और बोले,
“काका मैं तो सिर्फ आपसे मिलने ही आया था। मुझे क्या पता कि यहां आकर मुझे कुछ फैसले भी लेने होंगे। काका आपने हमारे पिताजी के प्राणों की रक्षा की थी। हम आपका वो कर्ज तो इस जीवन में नहीं उतार पाएंगे। लेकिन मेरा एक निवेदन है शायद मेरा निवेदन आपको स्वीकार हो या ना हो यह आपकी बात है। आज आपके साथ जो भी हुआ बहुत बुरा हुआ। यदि आप तैयार हों तो अपनी पौत्री का हाथ मेरे बेटे शाश्वत के हाथ में दे दें।”
प्रभु दयाल की ऐसी बातें सुनकर सेवाराम की आंखें चमक उठीं। आधी रात को जैसे सूर्योदय हो गया। सेवाराम को अभी भी विश्वास नहीं हो रहा था कि प्रभु दयाल जी ने जो कहा वह सत्य है या मैं कोई सपना देख रहा हूँ।
“क्या कहते हैं काका! यदि आप तैयार हों तो बुलाइए बेटी स्नेहा को”
“अरे बाबू इसमें कहने वाली क्या बात है। मुझ अभागे को इससे बड़ी खुशी कहाँ मिल सकती है। शायद मेरे पिछले जन्मों का कोई पुण्य आज उदय हुआ है जो मुझे आज इस भयानक दलदल से बाहर निकाल रहा है। मैं एकदम तैयार हूँ बाबू, किंतु आप भी शाश्वत बाबू से तो पूछ लीजिए।”
“हां काका आप ठीक करते हैं। बोलो बेटा शाश्वत तुम्हारा क्या विचार है?”
एक क्षण के लिए सन्नाटा पसरा। अगले ही क्षण शाश्वत थोड़ा शर्माते हुए धीमे से बोला-
“पिताजी आप हमारे जन्मदाता हैं। आपका हर फैसला मेरे सर आंखों पर।”
महिलाओं ने पुनः मंगल गान आरंभ कर दिया। सहेलियों के साथ सजी-धजी स्नेहा धीमे-धीमे मंडप की तरफ बढ़ने लगी। आज वह किसी राजकुमारी से कम नहीं दिख रही थी। स्नेहा व शाश्वत की जोड़ी खूब जम रही थी। स्नेहा के हाथों की वरमाला शाश्वत के गले में चार चाँद लगा रही थी।
-समाप्त-
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लेखक -लालबहादुर चौरसिया लाल
आजमगढ़,9452088890
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