कहानी – “सच्चा भक्त”
कहानी – “सच्चा भक्त”
डॉ तबस्सुम जहां।
“हमें बहुत अफ़सोस है पण्डिताइन जी। हमनें अपनी तरफ से बहुत कोशिश की पर दिल का दौरा इतना इतना ज़बरदस्त था और शुगर भी इतना बढ़ चुकी थी कि हम लोग भी कुछ नहीं कर सके।” डॉक्टर साहब पंडित जी का चादर से मुंह ढकने ही वाले थे कि पंडिताईन ने झट से डॉक्टर साहब का हाथ रोक लिया।
पल भर में कमरे में सन्नाटा छा गया। डॉक्टर साहब पंडिताइन का मुंह तक रहे थे और पंडिताइन डॉक्टर साहब का। एक शून्य-सा चारों तरफ पसर गया था। पंडिताइन की भावनाएं समुद्र में आए ज्वार भाटे-सा हिलोरें लेती उससे पहले ही उनके हृदय के चंद्रमा ने धीरज के बादल से उसको ढांप लिया। चन्द्रमा के ढकने से ज्वार-भाटा से आया भावनाओ का उद्वेग शांत हो गया। तब कहीं जाकर लंबी खामोशी के बाद उनके मुख से स्वर निकले
“डागटर साहब अभी किसी को पता न चले कि पंडित जी का देहांत हो गया है। मैं आपके हाथ जोड़ती हूँ।”
डॉक्टर साहब की तो हैरत का ठिकाना ही न रहा कि आखिर वो ऐसा क्यों कर रही हैं। इससे पहले वो इसकी वजह पूछते पण्डिताइन ख़ुद बोल उठीं -“डागटर साहब! आज गाम में मिस्त्री जुम्मन मियां की बिटिया का गौना जाने वाला है। पण्डित जी उसे अपना छोटा भाई मानते थे और उसकी बिटिया को अपनी बिटिया। बेचारा बहुत गरीब आदमी हैं जैसे-तैसे अपनी बिटिया की शादी कर रहा है। चौपाल पर बारात आई धरी है। पूरा गाम बारात की सेवा टहल में लगा है। जैसे ही सबको पता चलेगी पंडित जी का देहांत हो गया है पूरा का पूरा गाम ढुल आवेगा यहाँ। एक पत्ता भी न खड़केगा वहाँ। फिर वहाँ बारात की सेवा टहल कौन करेगा। नहीं नहीं, अनर्थ हो जावेगा। जब तक मिस्त्री की बिटिया का गौना नहीं जाता तब तक सबसे पंडित जी की बात छुपानी होगी।” उनकी आंखों से अश्रुधारा फूट पड़ी पर उसमें चीत्कार के स्वर नहीं थे।
“मेरे बेटे कच्चे दिल के हैं जैसे ही उनको अपने बापू के बारे में पता चलेगा वो तो आपे से बाहर हो छाती पीट-पीट कर रोने लग जावेंगे। उनको भी अभी भान नहीं लगने देना हैं कि उनके बापू सुरग सिधार गए हैं। बहुरिओं को रोता जान आसपास की सब औरतन तुरंत समझ जावेंगी कि पंडित जी गुजर गए हैं। नहीं, किसी को अभी कुछ नहीं बताना है।”
पंडिताइन डॉक्टर से मिन्नतें करने लगीं।
“बस दो चार घण्टो की बात है आप पिछले कमरे में जाके आराम करो। बाक़ी मुझ पर छोड़ दो। आप को बाहर जाते देख लोग आपसे अनेक तरियो के सवाल पूछेंगे। इससे बेहतर है कि आप भीतर जाकर आराम करो।”
“ठीक है पंडिताइन, आप कहती है तो मैं रुक जाता हूँ पर ज़रा जल्दी कीजिएगा। मेरे क्लीनिक पर बाक़ी पेशेंट मेरा इन्तिज़ार कर रहे होंगे।” डॉक्टर साहब ने कहा।
“आप चिंता मति न करो आपकी जो भी फ़ीस होगी सब चुकता कर दी जावेगी, बस आप भीतर जाकर बैठे रहो।”
डॉक्टर को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि आखिर क्या हो रहा है पर जब पंडिताइन ने पूरी फीस देने की बात कही तो वह उठे और जाकर भीतर के कमरे में बैठ गए साथ मे उनका सहायक बिशनू भी था।
पंडिताइन ने अपनी आंख के कोने साड़ी के पल्लू से अच्छे से साफ़ किए और किवाड़ की सांकल खोल कर बाहर निकली।
कमरे के बाहर बरामदे में चारपाइयाँ बिछी हुई थीं जिसमे पंडित जी के दोनों बेटे रामप्रसाद और सुन्दरप्रसाद अपनी घरवालियों के साथ बैठे हुए थे। आँगन में उनके बच्चे चकरी का खेल रहे थे। बड़के बेटे की पांच साल की लड़की लछमी और छुटके बेटे का 4 और 5 साल के दो बेटे किशन और बिशना। तीनो नौनिहाल जीवन मरण के चक्र और सुख दुःख की माया से इतर अपने ही खेल में मग्न थे। बालपन बीमारी मृत्य के भेद से बेखबर होता है। किसी प्रियजन के बिछोह की पीड़ा को आंकना वह नहीं जानता। वह तो अपनी ही एक अलग दुनिया मे व्यस्त रहता है।
वहीं पर दो चार रिश्तेदार भी मौजूद थे जो शायद पास ही से आए थे। एक नौकर भीखू उनके लिए चाय पानी कर रहा था। बरामदे के एक कोने में एक बड़े तख़्त पर दो ब्राह्मण बैठे पंडित जी की सलामती के लिए महा मृत्युंजय का अखंड पाठ कर रहे थे। सब की दृष्टि भीतर के दरवाजे पर लगी थी। सहसा आभास हुआ कि द्वार अंदर से खुल रहा है। जेठा रामप्रसाद तेज़ी से उठा और माँ के पास पहुँच कर बोला-“अम्मा कैसे हैं बापू, क्या कही डागटर साहब ने? क्या हम लोग बापू के दोहरे जा सकें अब?”
न बेटा, अभी ना। डागटर साहब इलाज कर रहे हैं। बोले, तुम फिकर मति करो पंडिताइन पंडित जी की सेवा खातिर में हम कोई कमी न रहने देवेंगे। अभी कोई भीतर न जा सके है डागटर साहब ने मना की है। इन्फेक्सन हो सके है बापू को अगर बाहर का कोई प्राणी भीतर जावेगा तो” कह कर पंडिताइन ने तख्त पर बैठे दोनों पंडितों को हाथ जोड़ कर नमस्ते किया और बोली- “आप तनिक अब थोड़ा जलपान करके विश्राम करो सुबह से ही पोथी सास्तर बांच रहे हो जी। रामु बिटवा पंडित जी को जलपान तो करा भीखू और बहुरिया से बोल के।”
वह सुन्दरप्रसाद की ओर पलटीं “सुन्नर बिटवा आज मिस्त्री की छोरी का गौना जाने वाला है गाम भर के लोग इकट्ठा हुए होंगे उसकी शादी में, सगुन पहुंचा मिस्त्राणि के या नहीं।”
“अभी कहाँ अम्मा? सुबह तड़के से तो सब बापू के लिए भाग दौड़ कर रहे थे सो किसी को भान ही न रहा गौने का सगुन भी जाना है।” सुंदरप्रसाद ने जवाब दिया।
“अरे भले मानस तेरे बापू के दोहरे में हूँ न उधर मिस्त्री सोचता होगा कि पंडित जी वैसे तो बहुत बड़े-बड़े बखान करें हैं कि मिस्त्री तेरी बिटिया मेरी बिटिया है और देखो, शादी में तो कोई बकरी का बच्चा भी न आया। जा पहले मिस्त्री की बिटिया को गौने का सगुन दे कर आ तब बापू के दोहरे बैठियो।”
सुन्दरप्रसाद जाने के लिए मुड़ा ही था कि पीछे से फिर आवाज़ आई
“सुन! मिस्त्री पंडित के बारे में पूछे तो कुछ न बोलना। कहना डागटर साहब इलाज कर रहे हैं।” कह क़र पंडिताइन के स्वर भीग गए। आंख के कोने से एक बूंद को लुढ़कने से पहले ही उन्होंने उसे साड़ी के पल्लू के हवाले कर दिया। दिल हुआ कि अभी बेटों के कलेजे से लग कर फट पढ़ें और बता दें कि उनके पिता अब इस दुनिया में नहीं रहे, पर विवश हैं। आखिर वह एक माँ भी तो हैं सो कैसे अपने बच्चों को रोकें आखिरकार ममता की जीत हुई और कलेजे पर पत्थर रखती हुई बोलीं-
“देखो बिटवा बापू को देखना है तो किवाड़ की ओट से आकर अभी दर्शन कर लो पर अभी ज़्यादा बापू के कने मत आना बस।”
कह कर पंडिताईन पण्डित जी के सिरहाने जाकर बैठ गईं। उस समय घर मे मौजूद सभी लोग एक-एक करके दरवाज़े तक आते और उसकी ओट में ही पण्डित को देख कर चले जाते। पहले रामप्रसाद, फिर दोनों बहुएं, नौकर भीखू, रिश्तेदार अंत मे छोटे बच्चों को भी पंडित जी को दिखाया गया। जब दोनों बच्चे किशन और बिशना भी देख चुके तो अंत मे लछ्मी ने भी भीतर झाँकने के लिए अपना भोला-सा मुँह अंदर किया। पंडिताइन ने देखा छुटकी लछ्मी भीतर झांक रही है।
नहीं.. नहीं! यह लछ्मी नहीं है…देवी माई हैं। सुपने वाली…लछ्मी का रूप धर कर आई हैं। यही देवी माई तो पंडित जी के सुपने में आई थीं। उन्हें बिसरा हुआ-सा कुछ याद आया- एक बार मिस्त्री जुम्मन मियां से पण्डित जी की किसी बात पर कहा सुनी हो गई। पंडित जी मार गुस्से से लाल पीले हो गए। फिर क्या था? उस बरस नवरात्रि पर जुम्मन मियाँ से माता की चुनरी भी नहीं सिमवाई। साथ वाले गांव के दर्जी मनसुख से सिमा कर माता को ओढ़ा दी। जुम्मन मियां ने बहुत मिन्नतें की पंडित से कि उनकी चुनर बस तैयार है बोला, मिस्त्राणि पेट से थी इसलिए थोड़ा ज़्यादा बख्त लग गया चुनरी बनाने में पर पंडित जी तो उस वक्त गुस्से से उछले उछले फ़िर रहे थे जैसे कोई चना गर्म राख पर भुन कर उछल उछल जावे है। उस दिन के बाद से ही मिस्त्री जुम्मन मियाँ उदास रहन लगे जैसे किसी की कोई प्यारी चीज़ खो जावे है तो वो उदास हो जावे है। माता तो विदा हो गईं पर पंडित जी का हृदय उस दिन से ही कसमसाने लगा। पेट मे एक अजीब-सी हौल ने पंडित का चैन बिसरा दिया। इक रोज़ पंडित जी बताया कि आज उसके सुपने में देवी मैया आई थी। बालक रूप में, तेज उनके मुख से टपक रहा था सजी सँवरी लाल चुनरी पहरे। छोटे-छोटे आभूषणों से लकदक पर एकदम उदास जैसे कोई नन्हा बालक रूठ कर मुंह कुप्पा-सा फुला लेवे है। ऐसी तरियो ही बटर बटर मुझे अपनी बड़ी-बड़ी आंखों से घूर रही थी। मैं झट उठा, उनके पॉंव छूने के लिए जैसे ही उनके पैरों पर झुका उनके नन्हे कदम मेरी पीठ पर ऐसे पड़े जैसे किसी पहलवान ने मेरी पीठ पर कस कर एक धौल जमा दी हो। मैं धूल खाता हुआ घणी दूर जा गिरा। समझ गया मैया मुझसे रुस्ट हो गई हैं। जाकर दूसरी बेर उनके पावों पर सिर रखकर बोला-“मैया मेरा अपराध छिमा करो। आखिर मेरी भूल तो मुझे बतावो”
मैया बिगड़ती हुई बोलीं- “हैं रे पंडित, तू घना विसय के फेर में फंस गया है। क्रोध-लोभ-विसय बढ़ गया है तेरे अंदर। भक्ति न दीखती अब मुझे तेरे हिये में। यो इस बार कैसी चूनर पहराई है तूने मुझे बावरे। देख तो कैसो नेक फीकी-सी लगे है। या मैं डोरी और फुँदने भी ढीलो-ढीलो से लटक रहे हैं। सीसे-सितारे तो बिल्कुल टूटे-फूटे से लगे हैं। रेसम के तार भी तो नकली झूल झूल रहे हैं। या चूनर तो मेरी देह में फंस-फंस जा रही है। क्या हर बरस मैं ऐसी ही चूनर पहरूँ हूँ जो तूने इब पहराई है? न मैं न पहरूँ तेरी या चूनर।” कहते हुए देवी माई ने चुनरी उतार फेंकी। वह गुस्से में पैर पटकती हुई मंदिर के भीतर जा घुसी और अंदर से द्वार बंद कर लिए। पंडित लाख-लाख द्वार पीटे, खूब अरज मन्नते करे पर देवी माई ने कपाट न खोले।
पंडित की तो घबराकर आंख ऐसी खुली कि फिर नींद आंखों से कोसो दूर थी। रात-भर बैचेनी से आंगन में यहाँ से वहाँ टहलते रहे। उन्हें जगता देख मेरी भी आंख खुल गई। उनसे बैचेनी का कारन पूछा तब कहीं जाकर उन्होंने अपना रात वाला सुपना सुना दिया बोले- “पंडिताइन मुझसे बहुत बड़ी गलती हो गई इस बार मैंने देवी माँ की चुनरी मिस्त्री जुम्मन मियाँ से नहीं बनवाई। वो बड़ा टैम लगा रहा था। मुझे लगा वो ज़्यादा दाम के लिए ऐसा कर रहा है सो मैंने पास के एक गाँव के मनसुख दर्ज़ी से चुनरी बनवा कर माता को ओढ़ा दी। उसने मिस्त्री से कम दाम लिए थे मैंने सोचा चुनरी ही तो है जहाँ कम दाम लगे वहाँ से सिमा लो पर लगता है मुझसे बहुत बड़ा अनर्थ हो गया।”
“क्या अनर्थ जी। दाम तो मिस्त्री भी लेवे है और उस भलमानस मनसुख ने भी लिए।”
“मुझे भी यायी लगा था कि बस दाम ही तो चुकाने हैं चूनर चूनर तो सब एक सी होंवे है पर मैं गलत था। मिस्त्री जुम्मन माता की चुनरी न बनावे है बल्कि अपना कालजा काडके धर देवे है। एक-एक मोती इतने प्रेम से टांके है उसमें। मैंने देखा है रात-रात भर रतजगा करके मिस्त्री और उसकी घरवाली कैसे बढ़िया कासिकारी करें वामे। अपना सारा प्रेम और भक्ति उड़ेल देवे हैं और पंडिताइन, मैं इतना भी जानू हूँ ये काम मिस्त्री पैसे के लिए तो कभी न करे वो माता का सच्चा भक्त है और माता भी उसके प्रेम से सरोबार हो उठें है। यह तो मेरी ही मति मारी गई थी जो मैंने मिस्त्री की बात नहीं मानी। इसलिए देवी मईया भी मुझसे नाराज़ हो गई। पंडिताइन, मैं मिस्त्री को मना लूंगा तो देवी माई भी मान जावेंगी। प्रसन्न हो जावेंगी।” अगले ही दिन पंडित जुम्मन मियाँ से छिमा मांग आए और गाम बहत में मुनादी करवा दी कि हरेक बरस जुम्मन मियाँ ही माता की चुनरी सिमेंगे। बस तब से ही पण्डित जुम्मन मियाँ को अपना छोटा भाई मानने लगे।
पंडिताइन की एकाएक जैसे तन्द्रा भंग हुई। लछ्मी अब भी किवाड़ की ओट से खड़ी हैरत से भीतर झांक थी। दीन-दुनिया से बेखबर।
उधर मिस्त्री जुम्मन मियाँ की बेटी रो-धो कर बस विदा होने वाली थी। पर जाने क्यों तड़के से ही जुम्मन का दिल बैचेन हो रहा था। बार-बार पंडित जी को लेकर मन भारी हो रहा था। सोचा कि आज ही उनकी तबियत बिगड़नी थी। वो तो ब्याह की सब तैयारी हो चुकी थीं अगर मैं यूँ जानता कि पंडित जी यों एकाएक बीमार हो जावेंगे तो कभी इस बख़्त द्वार पर बारात न बुलाता। आज यहाँ जो भी सुभकारज हो रहा है सब पंडित जी की मेहरबानी से ही तो है। ब्याह के तीन रोज़ पहले ही आकर पंडित जी ब्याह के लिए पैसा दे गए। बोले-“मिस्त्री तेरी बिटिया मेरी बिटिया है किसी चीज की चिंता मति करियो। देवी माई की किरपा से सब मंगलकारज हो जावेगा।
वह भीगे स्वर बोले- मिस्त्री! मुझे लगा कि मैं माता का सच्चा भक्त हूँ पर मैंने तो ब्राह्मण कोख से जन्म लिया इसलिए माता की भक्ति विरासत में पाई। पर बावरे! तू तो मुझसे भी बड़ा माता का भक्त निकला। मुसलमानन होकर ऐसी भक्ति” वह बोल रहे थे-“मिस्री वचन दे कि माता की चुनरी हर बरस तू ही सीमेगा। माता भी अपने भक्तों का प्रेम जाने हैं।” कह कर उस रोज जो पंडित उठे तो क्या पता था कि कल रात उनके बीमार होने की खबर मिलेगी। सोच कर जुम्मन मियाँ की आंखे भर आईं। लगा उनके दिल को कोई खींचे-खींचे ले रहा हो। वह अपना दिल पकड़ कर बैठ गए।
इधर जैसे ही जुम्मन मियाँ की बिटिया की डोली उठी वैसे ही ख़बर फैल गई कि पंडित जी का अभी-अभी देहांत हो गया है। ख़बर जैसे ही लोगों के कानों में पहुंची सब काम छोड़ छोड़ कर उनके घर की और दौड़ पड़े। पल-भर में जुम्मन मियाँ का घर खाली हो गया। अभी तक जो लोग जुम्मन मियाँ की ख़ुशी में शरीक थे वही सब पंडित जी की शोक में आंखे भिगो रहे थे। पंडिताइन के सब्र का बाँध भी अब टूट कर किसी उन्मादी नदी की भांति करुण क्रदन में बदल गया था। वह रोते-रोते बेहोश हो गईं। बेहोशी में ही देखती हैं कि देवी माई आई हैं बालक रूप में। रंगबिरंगी चूनर पहरें। एक दम लकदक चमक रही हैं। चूनर के सीसे और बेलबूटे नेक निखरे-निखरे से हैं। देवी माई प्रसन्न है। उनके मुख का तेज आंखों को चौंधिया रहा है। पंडिताइन की घबरा कर आंखे बंद हो गईं। थोड़ी देर में आंखे खोलती हैं तो देखती हैं कि देवी माई ने पंडित और जुम्मन मियाँ की अंगुली पकड़ी है और उन्हें अपने साथ लिए जा रही हैं। देवी माई प्रसन्न हैं अपने भक्तों के साथ। अपने दोनों भक्तों की अंगुली थामे वह मंदिर के द्वार पर अन्तर्ध्यान हो जाती हैं।
उधर पंडित जी के बेटे, रिश्तेदार और गाँव भर के लोग जैसे ही पंडित का क्रियाक्रम करके लौटे तभी दूसरी सूचना सबके कानों में पड़ी। सब एक साथ मिस्त्री जुम्मन मियाँ के घर दौड़ पड़े। अब उनके घर मे मातम हो रहा था।