कहानी जो समर्थ को स्वीकार, व्यर्थ को इंकार करती हैं
एक दिन मैं काफी बेचैन था !
मेरी पत्नी सहमे से पूछ बैठी !
कुछ अजीब सी बेचैनी देख रही हूँ !
कोई खास वजह !!
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मैं अंदर से तिलमिला रहा था !
मैं लेखन में रुचि रखता हूँ !
शायद लिखा हुआ !
कुछ मिट गया था !
मैं वापिस लिखने में असमर्थ था !
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तब उन्होंने कहा !
क्या फायदा लिखने का !
जब जो जन्म से पहले का लिखा जा चुका है !
जो जन्म के समय निर्धारित हुआ !
सब स्वीकार है !
लिखे को कोई समझ न पाया !
कर्म पर कुछ चातुर लोगों का शिकंजा हैं !
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जब कर्म आधारित जाति बच्चे के जन्म से पहले उसके निज-कर्म देखें बिन निर्धारित हो जाती है !!
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क्या करिएगा लिखकर !
मैं सहम गया !
चौंका था बातें सुनकर !!
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निजता को दबाया गया है !
औरत होना गुनाह है दर्शाया गया है !
हर बार हर परीक्षा में पास हुई हैं !
बेचारे-पन की हर कीमत अदा की है
इंसान फिर भी बाज नहीं आया !!
ये जाति वर्ण वर्ग नरक है !!
इंसान का बनाया हुआ !!!
धर्म की कठोर खोल से लिपटा हुआ!
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आओ समर्थ को स्वीकार करें !
व्यर्थ को इंकार !!
महेंद्र सिंह ऑथर