कहानी: उम्मीद पे उम्मीद
कहानी: उम्मीद पे उम्मीद
// दिनेश एल० “जैहिंद”
“सुन मुनिया । जा, चूल्हा-चौकी करके खाना बना ।” ललपतिया ने बड़े प्यार से बड़ी बेटी को कहा- “कोई कोताही काम में मत करना, नहीं तो आज तेरी खैर नहीं ।”
और छोटी वाली को पास बुलाकर कहा- “….. और देख छोटी, तू उसके काम में हाथ बँटा ।
काम मन लगाके करना, कोई झगड़ा-वगड़ा मत करना ।”
फिर अपनी मझली बेटी सुखिया के पास गई और कहा- “सुन सुखिया, तू घर का झाडू-पोंछा कर । आज रविवार है, आज मैं किसी का ना-नुक्कर नहीं सुनूँगी । आज तो घर का पूरा काम तुम्हीं तीनों को सम्भालना है ।” तभी किसी के रोने की आवाज आई ।
“ये बुधिया न, मुझे तो चबाकर ही छोड़ेगी ।” कहते हुए ललपतिया अपनी दुधमुँही रोती बच्ची बुधिया के पास दौड़ी । पहुंचते ही उसे अपनी छाती से लगा ली, तब जाकर वह चुप हुई जैसे उसे माँ का ही इंतजार था ।
ललपतिया के कुल मिलाकर यही चार संतानें थीं । और चारों की चारों बेटियाँ ही थीं । वह उम्मीद पे उम्मीद लगाए बैठी रही कि उसके भी एक दिन बेटा होगा, पर……. । तीसरी बेटी छोटी के बाद वह अपना नलबँधी करना चाहती थी, पर उसका मन नहीं माना । अच्छे-अच्छे कहते हैं कि उम्मीद पर दुनिया टिकी है सो वह भी सालों से आस की दहलीज पर बैठी बेटे की बाट जोह रही थी । पति की नसबंदी कराने की बात को भी वह सिरे से नकार देती थी । जैसे उसे पक्की उम्मीद थी कि उसके आँगन में भी एक दिन बेटे की किलकारी गुँजेंगी और वह किसी बेटे की माँ कहलाएगी ।
बुधिया को दूध पिलाते-पिलाते जैसे सपनों में वह खो गई । कल की ही बात है, पड़ोस की चाची की ताने सुनकर उसका दिल चिथड़ा-चिथड़ा हो गया था । रोज-रोज किसी न किसी के तानों भरी बातें सुनकर ललपतिया अब तंग हो गई थी ।
कुछ भी तो उसने उठा नहीं धरा था । क्या मनौती, क्या वैद्य-हकीम, क्या औझा-फकीर ।
“अरी बहू, कमरे में पड़ी-पड़ी क्या कर रही है ?” ललपतिया की सास बाहर के थोड़े काम निपटाकर आँगन में प्रवेश करते हुए चिल्लाई- “क्या उस दुधमुँही बच्ची के पीछे पड़ी है ?”
“हाँ माँ जी, क्या कहती हैं ?” ललपतिया ने सास की कड़क आवाज सुनकर कमरे से बाहर निकलते हुए जवाब दिया- “बुधिया रो रही थी, उसे ही दूध पिला रही थी ।”
“उसे रोते क्यों नहीं छोड़ देती, रोते-रोते वह खुद ही मर जाएगी । पहले से क्या तीन कम थीं कि यह चौथी घर बेचवाने को चली आई ।” आज उसकी सास जैसे अपने दिल की पीड़ा उगल देना ही चाहती थी- “तेरा पति क्या कुबेर का धन जमा कर रखा है, जो इस महंगाई के जमाने में सबको ब्याह लेगा । अब तो लगता है कि वंश का मुँह देखे बिना ही इस तन से प्रान निकलेंगे ।”
सास तो कहती सुनती आई गई पर ललपतिया का घाव हरा कर गई । वह सुबकते हुए बेटियों के काम की प्रगति को घूर-घूरकर देखने लगी । और उन्हें समझाते हुए आगे के कामों को बताने लगी । तभी फिर बुधिया के रोने की आवाज आई, वह फिर उसके पास लौट गई और उम्मीद के अंतहीन आकाश में खो गई ।
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दिनेश एल० “जैहिंद”
11. 12. 2017