कहां से लाऊं वह सावन –
अमुवा की डाली में झूला डलवाना
वो सखियों संग पेंग बढ़ाना।
मिलजुल प्रेम से सावन गाना।
वो कोयल का राग सुहाना ।
ढूंढ रहा है मन बेचारा,
कहां से लाऊं अब वह सावन।
वो पकवानों से महकती रसोई।
जिसे पकाने सजाने में कई दिन से न सोई।
प्यासी और पथराई आंखों से मां पथ को निहारती है।
बार – बार मुंडेर पर बैठे कागा को संबोधन से उड़ाती है।
उड़ जा काले कागा मेरी बेटी आती हो तो,
नहीं उडे तो निराशा में खोई।
कहां से लाऊं वह काग,
जो अाने से पहले राह तकती,
मां को दे जाता था दुआओं का सावन।
आज तो बिना ब्याह ही बच्चे सुदूर चले जाते हैं।
फिर चाहे कितने भी काग उड़ाओ छुट्टी मिले बिना नहीं आते हैं।
विलुप्त हो चली अमूवा की डाली।
पेंग अब क्लबों में ही बढ़ाई जाती हैं।
फेस बुक, ट्वीटर, वाट्स एप,
के माध्यम से पकवानों की सौंधी महक सूंघ ली जाती। हैं।
कहां से लाऊं वो संयुक्त परिवार।
वो ननद भाभी का दुलार,
वो प्यारे देवर का मनुहार।
वो सासुल की दुआओं में लिपटी साड़ी,
और मायके की गुंझिया ,और घेवर ,
वो सजना के प्यार का ज़ेवर,
वो जेठानी का संवारा हुए सोलह श्रंगार।
कहां से लाऊं रेखा वो मोर नाचता सावन।