कहां गई वो दीवाली और श्रीलक्ष्मी पूजन
कहां गई वो दीवाली और श्रीलक्ष्मी पूजन
सूर्यकांत द्विवेदी
श्रीलक्ष्मी एक हैं। लेकिन इनका स्वरूप बदलता रहता है। यह कभी एक जगह रहती ही नहीं। परिवर्तनशील हैं। मुद्रा का स्वभाव भी यही है। यह आज आपके पास है, कल नहीं। कोई आज राजा है तो कल फकीर है। कल कोई फकीर था तो आज वह राजा है। राजा की प्रवृत्ति के अनुसार उसकी राजलक्ष्मी का स्वरूप बदलता है। लक्ष्मी जी की पूजा इसलिए स्थिर लग्न में होती है। चाहे कोई छोटा हो या बड़ा, वह यही चाहता है कि लक्ष्मी जी उनके घर/ प्रतिष्ठान में सदा बनी रहें। स्थिर रहें। चलायमान नहीं रहें।
दीवाली को अहोरात्रि कहा गया है। इससे बढ़कर कोई अंधेरी रात नहीं। तिमिर से प्रकाश की ओर ले जाने वाला यह पर्व है। इस महापर्व के संदेश व्यापक हैं। यह अर्थव्यवस्था का सबसे बड़ा पर्व है। यह रोजगार का सबसे बड़ा पर्व है। आशाओं के दीपक घर से बाजार तक जलें, इसलिए यह घर का और हर व्यक्ति का त्योहार है। बाजार के बिना जीवन नहीं, अत: हर वर्ग और हर धर्म के लोग दीवाली के बाजार का इंतजार करते हैं।
समय के साथ दीवाली ने भी करवट ली है। पुरानी दीवाली का स्वरूप आज दिखाई नहीं देता था। पहले सिर्फ दीयों की दीवाली हुआ करती थी। तब तो मोमबत्ती भी नहीं हुआ करती थी। न ही मुहूर्त का ही कोई झंझट या विवाद था। सीधा सा फार्मूला था-करवा चौथ के 11 वें दिन दीवाली होगी। अहोई अष्टमी जिस दिन की होगी, दीवाली भी उसी दिन की होगी। पंचांग आदि का लोकाचार नियम था कि शाम सात से नौ बजे के बीच लक्ष्मी पूजन कर लिया जाए। बरसों तक इसी फार्मूले पर दीवाली होती रही। आज की तरह विद्वानों का विवाद नहीं था। शुभ मुहूर्त वही जो लोकमत हो। मुहल्ले में एक साथ दीवाली पूजन होता था। घर के बाहर दीपकों की श्रृंखला होती थी। घर की देहरी तक दीपक जलते थे और इसी कारण इस पर्व को दीपावली कहा जाता है। उस वक्त भी ऐसे लोग होते थे, जिनके पास दीपक के भी पैसे नहीं होते थे। लोग जाते और उनके घरों को दीपकों से रोशन करते थे।
अब श्रीलक्ष्मी पूजन का महत्व समझिए। लक्ष्मी जी का पूजन सर्वश्रेष्ठ और व्यापक माना गया है। श्रीलक्ष्मी अकेले नहीं आती। वह अपने कुल के साथ दीपावली पर आती हैं। उनके साथ समस्त देवी, देवता, ग्रह और नक्षत्र होते हैं। उनकी पूजा कभी अकेले नहीं होती। विष्णु जी के साथ होती है। साथ में बुद्धि और विवेक की देवी मां सरस्वती और ऋद्धि-सिद्धि प्रदाता श्रीगणपति भी होते हैं। नर से नारायण की अवधारणा ही श्रीलक्ष्मी पूजन है। श्रीलक्ष्मी के साथ विष्णु जी के साथ पूजा उदरपूर्ति की द्योतक है। जितनी आवश्यकता हो उतना धन। विलासिता की इच्छा करना लक्ष्मी जी का अलग गुण है जो अलक्ष्मी कही गई हैं।
श्रीलक्ष्मी पूजन में सर्वप्रथम ग्रह पूजा होती है। ग्रह शांति होगी तभी तो श्रीलक्ष्मी का वास होगा। कलश स्थापना, षोडश पूजा, सोलह स्तुति ( देवी सूक्तम) से मां लक्ष्मी का आह्वान किया जाता है। पहले जमाने में श्रीलक्ष्मी जी का पूजन घंटों होता था। लक्ष्मी-गणेश जी की माटी की मूर्ति पूरे वर्ष घर में उसी स्थान पर रहती थी जहां दीवाली की पूजा होती थी। अगले वर्ष नई और पुरानी दोनों मूर्तियों पूजा होती थी। फिर पुरानी मूर्ति को विसर्जित कर दिया जाता था। बहुत से घरों में आज भी यह परंपरा है लेकिन कम।
तब घरों में रात रातभर श्रीलक्ष्मी पूजा होती थी। गेरू, आटे और हल्दी से क्या खूब रंगोली बनती थी। इसको देवी जी का चौक पूरना बोला जाता था। चावलों को पीसकर या गेरू से श्रीलक्ष्मी जी के चरण बनते थे। पूजन स्थल से घर के द्वार तक। इनको कोई नहीं लांघता था। मान्यता थी कि श्रीलक्ष्मी इन्हीं चरणों को देखकर आएंगी। पूजा स्थल पर मंदिरनुमा एक हट होती थी मिट्टी के सकोरे होते थे, कुलियां होती थीं। इनमें खील ( चावल की) भरी जाती थी। पास में ही गुल्लक होती थी। बच्चों के नाम की। इसमें पैसे डाले जाते थे। यह बचत और निवेश का तरीका था। घर की महिलाएं अपने लिए भी एक गुल्लक रख लेती थीं। इसी में आगे बचत होती रहती थी। आड़े वक्त काम आता था यह पैसा।
घर के आँगन में एक कंदील पूरे घर की दीवाली करती थी। लोग घरों में ही रंग बिरंगी कंदील बनाया करते थे। कंदील का दीपक दूर तक रोशनी करता था। अब न कंदील है, न खील-बताशे-खिलौने ( चीनी के) और न गुल्लक। चीनी के खिलौनों की बड़ी मांग होती थी। उसमें तितली, बत्तख आदि बच्चों को लुभाने के लिए आकार दिए जाते थे।बदलते वक्त ने सब कुछ बदल दिया। पहले उपहार का चलन नगण्य था। हां, मुँह मीठा सबको कराया जाता था। अब तो खील, खिलौने, दीपक आदि सब रस्मी हो गए। मिट्टी के दीपक पूजन परंपरानुसार 5 और 11-21-31 ही रह गये। सारी चीजें तो रेडीमेड हो गई। रंगोली से लेकर देवीजी के श्रीचरणों तक। कंदील गायब। बिजली की झालरों से जगमग दीवाली। दीवाली पर दीये ही बेगाने।
एक और परिवर्तन। पहले दीवाली की मध्यरात्रि को तंत्रादि का प्रचलन था। आधुनिक और वैज्ञानिकता की ओर बढते समाज ने इससे दूरी बना ली है। कोरोना जैसी महामारी के बाद श्रीलक्ष्मी जी की पूजा का चलन बढ़ा है क्यों कि वह धन की नहीं तन की भी देवी भी हैं। पहले पंडितों से घरों में श्रीलक्ष्मी पाठ और हवन कम कराए जाते थे, अब होने लगे हैं। लेकिन अपनी पुरानी दीवाली आज की चकाचौंध में कहीं खो गई है।
या देवि सर्वभूतेषु लक्ष्मी रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।