कहाँ हो तुम गोबिन्द … ?
कहाँ हो तुम गोबिन्द
क्यूँ नहीं देखते
खुलती नहीं क्यूँ , तुम्हरी आँख
क्या चिर निंद्रा में सोये हो तुम
या किसी सहचरी संग,
प्रेम प्रसंग में खोए हो तुम
द्रोपदीयों की भीषन चीत्कार
कर रही है हाहाकार
दिग दिगंत में गूंज रहे हैं
उनके अन्तस् की पुकार
फिर किस बांसुरी की तान में
बेसुध हो किस मधुर गान में
या सोये हो किसी समसान में
या खोए हो तुम किसी ध्यान में
सुनते नहीं तुम क्यूँ रुदन गान
कहाँ हो
कहाँ हो तुम गोबिंद
तुम ही तो द्रोपदी के सखा
मित्रता का जिसने मीठा फल था चखा
तुम ने ही तो दिए थे बचन
लौटूंगा मैं हर जन्म-जन्म
जब भी कोई द्रोपदी,मेरी सखी
होगी कहीं किसी मोड़ पे दुखी,
‘या’ घसीटी जाएगी, दुःशासनों के हाँथ,
जंघा पर बैठाई जाएगी अपमानों के साथ
या नोची जाएगी पशुता से बलात
लौटूंगा मैं हर बार अपनी मित्रता के साथ
फिर मौन क्यूँ हो, क्या तुम भी
पकड़े गए हो, जकड़े गए हो
शासन के दंभी हाँथों से बलात
तुम्हारे भी हाँथों पैरों में लोहा
डाल रखा हो जैसे, दुष्टता के साथ
अंधा राजा गूंगा दरबारी,बीके हुए अधिकारी
बरबस बांधते हैं निर्दोषों को जैसे
तो लो… अब तोड़ रही हूँ मैं भी
हर बंधन तुम से जग के खेवन हार
नहीं पकडना झूठे आश कि डोर
झूठा निकले जिससे विश्वास हरबार
उठो द्रौपदी अब न आवेंगे वो
हाँथ बढ़ा न बचावेंगे वो
समेटो अपने बिखरे बस्त्र
कस के बांधो केसों में तुम अस्त्र
रणचंडी का करो श्रृंगार
कर दो दुष्टों पे प्रचण्ड वार
युद्ध है, युद्ध तुम्हें करना ही होगा
उठ के समर को सजना ही होगा
रणभेरी बज चुकी, उठ के अब तुम्हें
हर हाल में सखी लड़ना ही होगा
जिस ने इज्जत नंगी की उन हाँथों को,
अब तुम्हें जख्मी करना ही होगा
उठो द्रोपदी, अब तुम को
अबला से सबला बनना ही होगा।
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