कहाँ से छेड़ूँ फ़साना , कहाँ तमाम करूँ – ग़ज़ल
कहाँ से छेड़ूँ फ़साना , कहाँ तमाम करूँ
कहाँ से छेड़ूँ फ़साना , कहाँ तमाम करूँ
टूटा था दिल वहां से, या संभला था दिल जहां से
कहाँ से छेड़ूँ फ़साना , कहाँ तमाम करूँ
संवरे थे मेरे सपने वहां से, या बिखरे थे वहां से
कहाँ से छेड़ूँ फ़साना , कहाँ तमाम करूँ
जुड़ी थी यादें वहां से, या टूटे थे रिश्ते जहां से
कहाँ से छेड़ूँ फ़साना , कहाँ तमाम करूँ
जब रोशन हुआ था दिल वहां से, या तनहा हुआ था जहां से
कहाँ से छेड़ूँ फ़साना , कहाँ तमाम करूँ
चंद कदम चले थे वहां से, या जुदा हो गए थे जहां से
कहाँ से छेड़ूँ फ़साना , कहाँ तमाम करूँ
रोशन हुआ था मुहब्बत का कारवाँ वहां से, या बिखरे थे सपने वहां से
कहाँ से छेड़ूँ फ़साना , कहाँ तमाम करूँ
जब पहली बार हम मिले थे वहां से, या अंतिम दीदार हुए थे वहां से
कहाँ से छेड़ूँ फ़साना , कहाँ तमाम करूँ
जब रोशन हुई थी कलम वहां से, या उस खुदा की इनायत का कारवाँ रोशन हुआ वहां से
कहाँ से छेड़ूँ फ़साना , कहाँ तमाम करूँ
कहाँ से छेड़ूँ फ़साना , कहाँ तमाम करूँ