कहाँ पाओगे?
कहाँ पाओगे ?
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(1)
कौन भला रोके सुगन्ध को
हवा कहाँ प्रतिबन्ध मानती
पंछी के आने – जाने पर
सीमा कैसे रार ठानती
स्निग्ध चाँदनी की शीतलता
कैसे ठहरे, बतलाओ तो
बरखा की रिमझिम बूंदों को
कौन रोक ले, समझाओ तो
कविता की निर्मल धारा में
बहता हूँ, बहने दो मुझको
व्यर्थ परिश्रम करने वालों
निर्झर हूँ, झरने दो मुझको
धरती से अम्बर तक ढूंढो
ढूंढ – ढूंढ कर थक जाओगे
सीमा में बाँधे ‘असीम’ को
वह ज़ंजीर कहाँ पाओगे
(2)
आओ मेरे साथ उड़ चलो
केसर का मकरन्द चखाऊँ
सागर की उद्दाम लहर जब
सरगम छेड़े, गीत सुनाऊँ
नेह – सुमन की अभिलाषा में
भ्रमरों का अनुगुंजन देखो
श्याम मेघ की देख चपलता
मन – मयूर का नर्तन देखो
रेत भरी मुट्ठी सा जीवन
रिस कर रीता हो जायेगा
जिस पर है अभिमान तुम्हें,वह
सब कुछ इक दिन खो जायेगा
तीन रंग की चादर मेरी
देख – देख कर पछताओगे
सीमा में बाँधे ‘असीम’ को
वह ज़ंजीर कहाँ पाओगे
©️ शैलेन्द्र ‘असीम’