–कहाँ खो गया ज़माना अब–
रिश्तों को समेटकर जज्बात बना करते थे
जज्बात इतने मजबूत की रिश्ते बंधा करते थे
एक आवाज पर सब मिला करते थे
दूसरे के दुःख में शरीक हुआ करते थे !!
बेशक पैसा कम था पर चालाकी नहीं थी
जैसी आज है वो , आवारगी नहीं थी
नजरों की शर्म से , सब बंधे रहते थे
मिल बाँट कर सब की इज्जत किया करते थे !!
रिश्तों का आज जैसा व्यापार नहीं था
नीचता, कपटता , धूर्तपन भी नहीं था
आग में जलाकर बहु को मारता कोई नहीं था
हस-बोलकर मिल – बाँट सब जिया करते थे !!
न जाने इस युग में अब संताने कहाँ जा रही हैं
इज्जत, सम्मान, ईमान बेचकर दुकाने सज रही हैं
जिधर देखो अब फूहड़ता की कोई कमी नहीं है
पुराने दिन लौट आये, बस यही दुआ करते हैं !!
अजीत कुमार तलवार
मेरठ