कहने को है बहुत कुछ
कहने को है बहुत कुछ
जिसे हम छिपाते हैं
अरमानों के आज़ाद परिंदे
को कहाँ रास आते है
कफस लफ़्ज़ों के …
इसलिए गढ़ लेते हैं किस्से दिल में
और दिल में ही फ़िर छिपा लेते हैं
कहने को है बहुत कुछ
जिसे हम छिपाते हैं
अरमानों के आज़ाद परिंदे
को कहाँ रास आते है
कफस लफ़्ज़ों के …
इसलिए गढ़ लेते हैं किस्से दिल में
और दिल में ही फ़िर छिपा लेते हैं