कष्टप्रद है मानसिक घाव और लगाव
शारीरिक कष्ट फिर भी ठीक हो सकता है..कितना भी कोशिश करो मानसिक घाव कभी ठीक नहीं होते..इंसान ज़िंदा रहते हुए भी मर सा जाता है..कितना अज़ीब है ना इंसान..पूजा पाठ की तरफ़ भागता है..लेकिन मन से पीड़ा फ़िर भी नहीं जाती..हमें चाहिये एक दूसरे को मानसिक रूप से ठेस पहुंचाना बन्द करें हम..एक दूसरे को नज़रअन्दाज़ न करके अगर समझें हम तो महसूस होगा हमारी आत्मायें एक दूसरे से जुड़ी हैं..जो जैसा व्यवहार करता है ये उसकी आत्मा के संस्कार होते हैं ये..कोई अलौकिक शक्ति होती है ये जो इंसानों को किसी अदृश्य धागे से जोड़े रखती हैं..इंसान भौतिक रूप से साथ न रहते हुए भी आत्मिक रूप से साथ रहता है..रूह से रूह जुड़ी होती है..शायद कोई मकसद होता है मिलने का..जहाँ दर्द ज्यादा होता है अक्सर वहीं रिश्ता बहुत गहरा होता है क्योंकि गहराई नहीं होगी तो कुछ भी महसूस नहीं होगा…क्यों न एक दूसरे के सुख के निमित बनें हम..खुशियों का कारण बनें हम..जहाँ भी जायें अपने व्यक्तित्व की एक भीनी सी खुशबू छोड़ते जायें..झुकना भी पड़े तो झुक जायें..क्योंकि सुन्दर रिश्तो से बढकर कुछ भी नहीं..एक दूसरे की सुनते जाइये..पास में बैठिये..आंसू पौछिये क्योंकि इस कलयुग में न जाने कौन कैसा गहरा दर्द सीने में छिपाये बैठा हो..अपने साथ साथ जो दूसरों के दर्द को भी महसूस करे तो ही इंसान होने की सार्थकता है..लाख डिग्रियां हों हमारे पास..अगर अपनों के चेहरे नहीं पढ पाये..उनके चेहरे पर मुस्कुराहट नहीं ला पाये तो सब व्यर्थ है..ज़िंदगी को जियो..खुलकर जियो..ज़िंदादिली के साथ जियो…मन में भरकर मत जियो..हँसते रहो..मुस्कुराते रहो..ईश्वर मेरे सभी अपनों को खुश रखे…आँखें चाहे आपकी हों या मेरी हो..दुआ है ईश्वर से कि वो कभी नम न हों…??वो किसी ने सही कहा है…
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“आशाएं ऐसी हो जो-
मंज़िल तक ले जाएँ,
“मंज़िल ऐसी हो जो-
जीवन जीना सीखा दे..!
जीवन ऐसा हो जो-
संबंधों की कदर करे,
“और संबंध ऐसे हो जो-
*याद करने को मजबूर कर दे