कश्मकश
न जाने ज़िंदगी कैसे, कश्मकश में पड़ा है।
न चराग बुझ रही है, न तूफान थम रहा है।
चलते ही जा रहे हैं, अंजान सफर पे जैसे।
न दिख रही है मंज़िल, न रुक कदम रहा है।
यकीं हो न दरमियाँ तो, सलामत हो ईश्क कैसे?
ऐतबार से ज़्यादा, जहां हावी वहम रहा है।
जज़्बाती जब थे दोनों, वादे किये बहुत थे।
टकरा रहे अहम अब, और टूट कसम रहा है।
गमों की बाढ़ आई, तय मेरा तो डूबना है।
न तो तैरना मुझे है आता, और न पानी कम रहा है।
मुह फेर लिए वो मेरी, परेशानियों को सुनकर।
अंधेरों में खुद का साया, कब हमकदम रहा है।
ख़ामोश हो चुका हूँ, सुकून इसमें भी नही है।
दिल के अंदर न जाने कितने, मचा शोर गम रहा है।
ताउम्र गिन न पाऊँ, इतने टुकड़े हुए हैं अरमाँ।
मुसल्सल नसीब मेरा, मुझपर ढा सितम रहा है।
थी उम्मीदेँ कांच की जब, टूटना था लाज़मी ।
तो क्या हुआ जो मेरा, संगदिल सनम रहा है।
ज़हर यादों का रोज़ाना, ये कैसा पी रहा हूँ ।
न भर पा रहा हूँ सांसे, न ही निकल दम रहा है।
न जाने ज़िंदगी कैसे, कश्मकश में पड़ा है।
न चराग बुझ रही है, न तूफान थम रहा है।
दीपाली कालरा