कशमकश
मधुसूदन !
जनार्दन !!
कुरुक्षेत्र के मैदान में
अपने सगों, कुटुम्बों को
काल के गाल में भेजकर सुख कैसा ?
राजसत्ता कैसी ?
गाण्डीवधारी का विचलन,
धनुष का परित्याग,
स्वाभाविक था.
यह कैसा धर्मक्षेत्र ?
जो नाश कर दे कुल का,
धर्म पर अधर्म की विजय पताका फहराए,
राज सत्ता का लोभ,
अपने ही वंश के विनाश
का मार्ग प्रशस्त करे.
पांचजन्य, देवदत्त
जैसे दिव्य शंखों की नाद-
अद्वितीय धनुर्धर के
कानों को वेधने लगा
श्वेत अश्वों से युक्त रथ
मुँह चिढ़ाने लगा
और अन्ततः
धनुर्धर धम्म से,
शोक में निमग्न,
बैठ गया
रथ के नेपथ्य में
स्नेह, करुणा और धर्माधर्म के भय से
व्याकुल, अधीर
है कोई उत्तर ?
बताइए, अरिसूदन.