कवि
रात्रि जागरण केवल
उल्लूक ही नहीं करता
कवि भी करता है
वैचारिक मन्थन के लिए
समाजिक चिन्तन के लिए।
देखता है वह सारी रात अपने दूरदर्शी नेत्रों से
रात की काली चादर में सिमटा
दिन का उजला नंगा तन
मानवता का वहशीपन।
दूर दूर तक फैला काला अन्धकार
सघन घोर
सहमी सहमी बैठी छुप के
दीवारों की ओट में भोर।
देखकर यह दृश्य
कवि कराह उठता है
और भर जाते हैं
उसके क़लम में
स्याही की जगह आंसू ।
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सरफ़राज़ अहमद “आसी”