कवि मित्र की महिमा
कवि मित्र की महिमा
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कॉलेज में पढ़ाई के समय हमारे कुछ मित्रों की प्रतिभा उभरकर सामने आई। कुछ फिल्मी सितारों की आवाज की अच्छी नकल करता तो कुछ नेताओं के हाव-भाव और चलने तथा बोलने की नकल करता तो कुछ गाना अच्छा गा लेता था। इसके साथ ही हमारा दो-तीन मित्र कविता रच कर गंभीर कवि बन प्रतिष्ठा समेटे हुए था। खासकर इन कवि मित्रों से बहुत इर्ष्या होती थी। क्योंकि जब पढ़ने लिखने से हटकर कुछ मित्र शाम में कहीं इधर उधर की बात कर रहे होते तो ये कवि मित्र अपनी कविताओं की कुछ पंक्तियां सुना कर अच्छी प्रतिष्ठा बटोर ले जाता और हम लोग एक दूसरे का निरीह भाव से मुॅंह ताकते रह जाते। शुरुआती दौर में तो मैं उनकी प्रतिभा का जबरदस्त कायल रहा था और इसे ईश्वर प्रदत्त प्रतिभा कह कर प्रशंसा का भूखा अपने कवि मित्रों की सहानुभूति लेता। मैं जब भी कभी खाली बैठा रहता था तो सोचता काश मैं भी कवि बन जाता तो एक अलग बात बन जाती और पर्सनलिटी भी निखर जाती। आगे चलकर हो न हो इसी क्षेत्र में ही कोई अच्छा स्कोप मिल जाए। यह साधारण पढ़ाई में फंसने से क्या फायदा।आज कल के युग में बहुमुखी प्रतिभा का धनी होना सबसे बड़ी बात होती है। एक दिन बात ही बात में मैंने अपने एक कवि मित्र के पास अपने दिल की बात रखी तो ऐसे जवाब दिया कि जैसे पानी में कूद जाओ और तैरना शुरू कर दो और बाद में चाहे डूब ही क्यों ना जाओ। मैंने कहा ऐसा थोड़े होता है कुछ ना कुछ विशेष बात तो होगी जिससे शब्दों से कविता बनाई जा सके। उसने कहा मन में नवीन विचारों का सतत् उदय हो और दिमाग में भारी भरकम शब्दकोश हो तब कविता रची जा सकती है। एक हिंदी का शब्दकोष और एक व्याकरण खरीद लो। उसका ध्यान से अध्ययन करो तब धीरे धीरे भाषा और व्याकरण पर मजबूती के साथ पकड़ बढ़ जाएगी। शब्दों का भंडार भी तब तीव्र गति से बढ़ने लगेगा और तब कहीं जाकर रचना का जन्म होगा। तभी तो मैंने हाॅं में हाॅं मिला दिया लेकिन मैंने सोचा क्या अब यह सब मेरे बस की बात है। यह महत्वपूर्ण दिशानिर्देश देते हुए उसके चेहरे की आभा देखते ही बनती थी। अभी उनके दिव्य चेहरे के सामने महाकवि कालिदास भी आ जाए तो वह भी पानी भरने लगे। असंभव सा दिखने वाला कार्य की कल्पना कर कवि बनने की दिली इच्छा मन में दबी ही रह गई। उस समय लगता था यह कार्य कुछ विशेष किस्म के व्यक्ति ही कर सकते हैं। मेरे जैसे लोगों के लिए ये रोग पालना संभव ही नहीं असंभव है। मन में सोचता मेरे इन कवि मित्रों के माता-पिता अपने पुत्र की अलौकिक और नैसर्गिक प्रतिभा से स्वयं को कितने गौरवान्वित महसूस करते होंगे।काश मेरे पिता ने भी यह संस्कार बचपन से मुझमें डाला होता या घर का ही वातावरण ऐसा होता तो यह असंतोष भाव वाला दिन तो आज कम से कम मुझे नहीं देखना पड़ता।
इसके बाद पढ़ाई के क्रम में मैं दिल्ली चला गया। दिल्ली विश्वविद्यालय में एम ए कोर्स में एडमिशन लेने के बाद परमानंद कॉलोनी में एक फ्लेट लेकर अपने अन्य तीन पुराने मित्रों के साथ रहने लगा। आगे की पढ़ाई के क्रम में नए मित्र बनने लगे थे और पुराने मित्र धीरे धीरे स्मृति की पटल पर अनुपस्थिति दर्ज करने लगे थे। संयोग से एक दिन कनॉट प्लेस से डीटीसी बस में चढ़ कर रिंग रोड होते हुए मैं किंग्सवे कैंप आ रहा था। किंग्सवे कैंप से मुखर्जी नगर या परमानंद कॉलोनी की दूरी कम हुई थी। किंग्सवे कैंप में उतर कर कोई सामान आदि लेना होता या बगल में किसी दोस्त से ही मिलना होता था तो कुछ देर वहाॅं रुक कर दूसरी बस से परमानंद कॉलोनी आ जाता था। किंग्सवे कैंप में जब बस रुकी तो मेरे साथ एक लड़का भी बस से उतरा। मुझे एक क्षण के लिए लगा शायद इसे मैंने कहीं देखा है। संयोग से वह भी मेरी ओर देख कर एकबारगी ठिठक गया था। मेरे मुॅंह से अनायास ही निकला संतोष और वह भी मेरा नाम कह कर मुझसे लिपट गया। वही रोड के बगल में नहीं समाप्त होने वाली बातों का सिलसिला चल पड़ा। बढ़ते बढ़ते एक चाय की दुकान में रुक कर हम लोगों ने चाय पीया। वह बताने लगा कि वह भी पहले उत्तमनगर में रहता था लेकिन पिछले महीने से मॉडल टाउन में रहता है। उसके माध्यम से और कई मुख्यधारा से अचानक लुप्त हुए हमारे पुराने मित्रों के बारे में अद्यतन जानकारी भी मिली। थोड़ी देर के बाद संडे को मिलने का वादा कर वह दूसरी बस से चला गया। जाते-जाते मेरा भी पूरा पता वह ले लिया था। वह मेरा कॉलेज के समय का कवि मित्र संतोष था। दिल्ली विश्वविद्यालय में ही फ्रेंच विषय से एम ए कर रहा था और साथ साथ प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी भी कर रहा था। पढ़ने लिखने में वह शुरू से ही अच्छा था। मैं भी इसके बाद अपने डेरा पर वापस आ गया और पहुॅंचते साथ ही अपने तीनों दोस्तों को भी संतोष से हुई अचानक भेंट के बारे में बताया। ये तीनों मेरे पुराने मित्र थे इसलिए संतोष को व्यक्तिगत सबसे जान पहचान थी। बात तभी आई गई हो गई। वादे के मुताबिक संडे को संतोष नहीं आया था। मन ही मन सोचा कि शायद कोई बात हो गई होगी या किसी आवश्यक कार्य में फंस गया होगा। अभी के समय वाली बात तो थी नहीं। मोबाईल की सुविधा उस समय कहाॅं थी कि तुरंत रिंग करके वास्तविक स्थिति के बारे में पूछ लेते। लैंडलाईन फोन का जमाना था और मात्र एक फोन करने के लिए फोन बूथ पर देर तक इंतजार करना पड़ता था और तब जाकर बारी आती थी। उस समय फोन करना भी एक कठिन कार्य से कम नहीं था। हम लोगों का फोन आता था मकान मालिक के फोन नंबर पर। उसका मूड अगर ठीक हो तो बात करवा सकता था या नहीं तो एक ही झटके में बोल देता था कि रूम में ताले जड़े हैं और फोन रख देता था।
अगले संडे को चार बजे हमारे डेरा पर संतोष अचानक धमक गया। देर तक इधर-उधर की बातें होती रही और अन्तत: वापस जाते-जाते बहुत दिनों के बाद नई लिखी हुई कविता सुनाकर वाहवाही लूट लिया। अब संडे के अलावा अन्य किसी दिन भी संतोष आने लगा था। एक दो बार हम लोग भी उसके डेरा पर गये। उसका कवि वाला कीड़ा मरा नहीं था बल्कि पहले से और अधिक तीक्ष्ण धार के साथ शक्तिशाली हो गया था। शुरु शुरु में उसका आना तनाव का कारण नहीं था बल्कि बार-बार उसकी कविता को सुनना अब कष्ट देने लगा था। सुधि पाठकों को कविता सुनाने की उसकी उत्तेजना बढ़ गई थी। कविता के शब्द भी पहले से अधिक क्लिष्ट और भाव गंभीर हो गए थे। दिल्ली में आकर पढ़ाई करने की जगह बैठकर कविता सुनना कुछ अटपटा सा महसूस होता था। लगता था कि निश्चित रूप से माता-पिता के विश्वास की निर्मम हत्या कर रहा हूॅं। इसलिए यथासंभव हम लोग उनकी कविता की चर्चा से बचने का प्रयास करने लगे थे लेकिन वह भी पक्का हठी था। लाठी के हाथ से ही सही लेकिन कविता तो सुननी पड़ेगी वाली बात थी। अगर थोड़ा भी ना नुकूर करते तो दोस्त का कमीनापन तो जगजाहिर है। गाली गलौज पर उतरने में सेकंड नहीं लगाता। मन मार कर कविता ही नहीं सुनता बल्कि उपर मन से तभी वाह वाह भी करना पड़ता। अगर अच्छी प्रतिक्रिया नहीं मिलने से कहीं उसका मुॅंह लटक जाएगा तो फिर वाह-वाह करवाने के लिए अगली कविता सुनाता तब जाकर जान छूटती। इसलिए आगे वाला रिस्क हमलोग जल्दी नहीं लेते थे। वैसे भी अगर एक कवि को सुसभ्य वाह वाह करने वाला धैर्यवान श्रोता मिल जाए तो चौबीस घंटे ही कविता सुनाने के लिए तरोताजा तैयार स्थिति में ही मिलेगा। आप अगर दुःखी भी हैं या आपके मन में अभी कौन सा विचार चल रहा है। इन सब बातों से मेरे कवि मित्र को कोई लेना देना नहीं था। अगर एक बार उनकी मीठी मीठी बातों से उनके झांसे में आ गए तो पूरी कविता सुना कर ही वह आपको आजाद करेगा। संतोष की हर नई रचना को हम लोगों को ध्यानपूर्वक सुननी ही है यह बात मैं और मेरे तीनों मित्र अपने दिल में अच्छी तरह से बैठा लिये थे एक अनिवार्य विषय मानकर। इसमें कोई संदेह नहीं था कि उम्र के हिसाब से संतोष अच्छी और गंभीर कविता लिखता था पर इससे हमारी पढ़ाई का कोई भला होने वाला तो नहीं था इसलिए अपराध बोध महसूस होता था।
इसी बीच एक उड़ती खबर मिली कि मेरा एक और मित्र अजय कवि बन चुका है या कवि बनने की दहलीज पर पूरी तैयारी के साथ खड़ा है। यह सुनकर लगा घड़ों पानी सिर पर उलट दिया गया। इस बात की इर्ष्या नहीं थी कि अजय भी अब विद्वान की श्रेणी में आ गया है। मन की उफनती भावनाओं को शब्दों में कैद करने की कला सीख गया है और शब्दों को उंगली पर नचाना सीख गया है। चिंता का विषय था कि उनकी कविता भी अब सुननी ही पड़ेगी और शारीरिक रूप से भी वह खाया पीया और बलिष्ठ था। सोचा कितना अच्छा अजय दिल्ली यूनिवर्सिटी के नॉर्थ कैंपस में हिस्ट्री से एम ए कर रहा था तथा साथ ही साथ सिविल सर्विसेज की तैयारी के लिए कोचिंग भी शुरू कर दिया था। अजय के पिताजी आयकर विभाग में पदाधिकारी थे। पढ़ाई लिखाई में अजय को कभी भी आर्थिक कमी महसूस नहीं होती थी। मन ही मन सोचा यह अजय को क्या भूत चढ़ गया। कितना अच्छा पढ़ लिख रहा था। पढ़ने में भी औसत से वह अच्छा विद्यार्थी था। यह कविता के चक्कर में कैसे फंस गया। अजय मेरे बगल में ही मुखर्जी नगर में रहता था। उसके डेरा से मेरे डेरा की पैदल दूरी दस मिनट से अधिक की नहीं थी। अजय पुराने मित्रों में से था इसलिए आने वाले दिन के खतरा का सहज अनुमान होने लगा था। अजय को भी प्रखर और सजग श्रोता की तलाश है और हम लोगों से अनुभवी श्रोता पूरी दिल्ली में उसे ढूंढने पर भी नहीं मिलने वाला था। बत्रा सिनेमा में दीवाना फिल्म देखने के लिए हम लोग सभी गए हुए थे। पिछला शो टूटने के इंतजार में हम लोग गेट के पास खड़े थे। वहीं अजय से अचानक साक्षात्कार हुआ और शो टूटते ही अंदर जाने के क्रम में दो तीन मिनट बातें भी हुई थी। फिल्म समाप्त होने के बाद भीड़ में अजय से तभी भेंट नहीं हो सकी।
संडे को संतोष का आगमन डेरा पर हुआ और बात ही बात में अजय की चर्चा भी खुल गई। संतोष की बात से पता चल गया था कि अजय के बारे में उसको सब राम कहानी मालूम है। मैंने कहा कि सुनते हैं कि अजय भी अब कवि बन गया और एक तुम हो जो मुझे अपनी उतनी कविता सुनाने के बाद भी कवि नहीं बना सके। अजय का नाम सुनते ही संतोष बिफर गया और उसे लगा कि उसके स्टारडम पर खतरा मंडरा रहा है। उसे चुनौती देने वाला अजय पैदा हो गया है। अभी तक इस क्षेत्र में दोस्तों के बीच एक छत्र राज कर रहा था वह। एकडमिक कैरियर के साथ एक कवि वाली प्रतिष्ठा भी थी। संतोष के चेहरे से झल्लाहट और चिड़चिड़ापन साफ साफ नजर आ रहा था। संतोष को चिढ़ाने के लिए हम लोगों ने अजय के कविता की बात फिर छेड़ दिया। इस पर संतोष तो गुस्सा से लाल हो गया और बोला वह खाक लिखेगा। कविता लिखना सबके बस की बात थोड़े ही है। सब कुत्ता गया जाएगा तो भांड़ कौन छुताएगा। तब तो आते जाते सब आदमी कुछ न कुछ लिखकर कवि बन जाए। कविता लेखन एक साधना से कम नहीं है। शब्दों को विषय वस्तु के आधार पर साधना पड़ता है। शब्दों का परस्पर आकर्षक संयोजन है और शब्दों को उंगली पर नचाने की उन्नत कला है। मुझे भी मालूम है कि पड़ोस वाली लड़की से एक दिन अकस्मात आमना-सामना हो गया था तो इसे प्यार मानकर वह रसिक एक कविता रच डाला और वाहवाही लूटने के चक्कर में घुम घुम कर सबको सुनाता है। अगर चोंच से चोंच मिलाकर बात भी कर लिया होता उस लड़की से तो एक बात भी होती। तुम लोग भविष्य में कभी सुनोगे पर मैं तो सुन चुका हूॅं उसकी अनमोल कविता। घिन्न आती है ऐसी घटिया रचना से और रचनाकार से। कौड़ी का भाव भी नहीं है ऐसे सृजन का हिन्दी साहित्य में। इस तरह का कवि अगर पैदा होता रहा तो हिन्दी साहित्य का बंटाधार कर रसातल में पहुॅंचा कर ही दम लेगा। यह कह कर संतोष गुस्से में रूम से निकल कर चला गया।
जिसका इंतजार था वही हुआ। जहाॅं न पहुॅंचे रवि वहाॅ भी जाये कवि। अगले ही दिन अजय हम लोगों का पता लगाकर डेरा पर पहुॅंच गया था। वह पूरा उत्साहित और उर्जावान लग रहा था। बातों बातों में ही अपनी नई नवेली कविता की सुनहले पृष्ठभूमि पर हिचकोले ले लेकर विस्तार से प्रकाश डालते हुए एक ही दम में अपनी पूरी कविता हम चारों दोस्तों के मुॅंह पर एक ही सांस में दे मारा। आप भी थोड़ा सा रोमांचित हों इसके लिए नवकवि अजय की कविता नीचे उद्धृत कर रहा हूॅं।
मैं जब कभी भी जाता हूॅं अपने छत पर
वह भी तभी आ जाती है अपने छत पर
मैं तो जाता हूॅं अपने कपड़ा को सुखाने
पर वह आती है मुझसे मिलने के बहाने
यह सिलसिला तो अब ऐसे ही चल पड़ा
पाने को झलक मैं रहता हूॅं हर पल खड़ा
साफ कपड़े को ही बार-बार मैं धोता हूॅं
फिर उसे उलट-पुलट कर मैं सुखाता हूॅं
हमारे प्यार पर किसी की नजर लग गई
उसे एक बार देखने को ऑंखें तरस गई
उसका छत पर ही आना हो गया है मना
उसके इंतजार में दीवाना हो गया तन्हा
पढ़ाई में अब मेरा मन कभी नहीं लगता
रात भर अपने बेड पर रहता हूॅं जगता
किताब के पन्ने तो अब काटने को दौड़ते
लगता है अब ये मेरे दिमाग को फोड़ते
अब मेरा सभी कपड़ा को धोबी धोता है
पर कपड़ा सुखाने को मेरा मन रोता है
हम लोगों के द्वारा प्रत्येक पंक्ति के साथ वाह-वाह का उद्घोष आप स्वत: महसूस कर लेंगे। इधर अब संतोष का भी आना कम हो गया था और अजय अपनी एकमात्र कालजयी रचना के बाद अपनी नई रचना के लिए सुन्दर विषय की तलाश में इधर उधर भटक रहा था।