कवि नहीं मे
कवि नहीं मे कोई बस तुकबंदी कर देता हु
कुछ आपनी कह देता हु कुछ उनकी कह देता हु
प्रेम बाग से प्रेम पोध से प्रेम पुष्प छू लेता हु 1
और कभी मे प्रेम के मन की भाषाएँ कह देता हु
वो मुझको कहती है कान्हा ,रूक्मणी में कह देता हु
और कभी वो शाहजहाँ , मे मुमताज कह देता हु
वेसै तो श्रृगार लिखु में ओज कभी लिख देता हु
और कभी मे चनचल बन कर हास्य भी कर देता हु
कभी कभी मे श्रृगार की सीतल नदीया मे बनाता हु
और कभी ओजस्वी कर आंगरे भी गा जाता हु
कभी कभी गीता के उपदेशो को कह देता हु
और कभी मे महाभारत युध्दो को गा देता हु
अभिषेक सिंह ठाकुर
अंजन
पलकाश्री