“ कवि की कविता “
डॉ लक्ष्मण झा “ परिमल “
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कुछ दिनों से मेरी कविता मुझसे रूठ गई
कानों में मीठे बोल बोले
अपनी उंगलियों से उनके बालों को सहलाया
और उन्हें गुदगुदाया ,
पर स्तब्ध मौन निरुतर अपनी पलकों
को दोनों हाथों के तले छुपाके
अपने रूठने की भंगिमा में
लिपट कर प्रतिकार कर रही थी !
आखिर उसकी व्यथाओं को
भला कौन पढ़ता हैं ?
उनकी सिसकियां और करुण क्रंदन
को कोप -भवन की दीवारें ही सुनती हैं !
नए -नए रस और अलंकारों
के परिधानों में सजती है !!
चूड़ियों की खनघनाहट
और पायलों की धुन की एक अद्भुत
संगीत बनती है !
वर्षों बाद कवि अपनी कविता की सुध लेने पहुंचा ,
कविता किसी कोने में
अपनी सुध -बुध खोयी बैठी है !
कवि की भी कल्पना के तार ढीले पड़ गए
शब्दों का संसार धूमिल पड़ गया ,
शृंगार के कलमों की धार अविरुद्ध हो चली ,
हमने अपनी गलतियां मानकर
अपने दोनों हाथों को जोड़ कर ,
अपनी प्रियतम कविता का अभिनंदन
और सम्मान किया !
अब मैं अपनी कविता को कहीं छोड़ कर
नहीं जाऊंगा और जहाँ जाऊंगा
सँग तुम्हें ले जाऊँगा !!
सब दिन अपनी कलम से रंग भरूँगा ,
रस ,अलंकार के परिधानों से नया रूप दूंगा !
कविता कवि का साथ अनोखा
एक दूजे के पूरक सदा ही होते हैं ,
कुछ क्षण दूर भले रहते हों
पर साथ सदा ही रहते हैं !!
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डॉ लक्ष्मण झा “ परिमल “
साउन्ड हेल्थ क्लिनिक
एस 0 पी 0 कॉलेज रोड
दुमका