कवित्त
ऐ रुक सृजनहार, छोड़
थोड़ा ठहर, देख ज़रा
भूखों – नगों की के डेरे में
रोटी नहीं महफिल के घेरे है
ये शृंगार है बाजारों के
चकाचौंध है सिर्फ किबाड़ों के
ये लौटा, का मुख देखो तो जान
कुछ लाया भी था झोले में…
किस्मत जलते है मगर राह नहीं
टूट जाते, बिखर जाते पत्ते-सी
स्वर राग में ये सुमधुर संगीत कैसा !
फिर खिलता क्यों है नव्य सी धार ?