– कवित्त मन मोरा
– कवित्त मन मोरा
उपवन बनाया कविता के,
खिले खिले शब्द प्रसूनों से,
सुगंध महकी भाव विचारों से,
सींचा रस मधुर नीर से,
खिले उठा वो आंगन उपवन
भिन्न भिन्न वृक्षों से।
कागज वो न्यारा लगा
धार रखा हर अक्षर को धरा के जैसे,
अम्बर उस को तांक रहा
निज पारखी नजरों से,
मन मोरा कवित्त भरा
नाच रहा मयूरा बन सा।
-सीमा गुप्ता अलवर राजस्थान