कवित्त की अनुभूति
अनुभूति– 01
कुछ लोग साहित्यिक चर्चा इत्यादि में हिस्सा लेने के लिए शुक्ल लेते हैं।
उनका मानना है कि वो श्रेष्ठ साहित्यकार हैं, और साहित्यिक ज्ञान देने के लिए ,शुल्क निर्धारण करना उनका हक़ है।
कुछ दो चार स्वघोषित बड़े ऊंचे स्तर के साहित्यकार ,मुझे मैसेज करते हैं कि आप हमसे साहित्यिक ज्ञान लीजिए,आप हिंदी मंच से जुड़े हैं तो आपको यथाउचित शुल्क में छूट दी जाएगी। खैर इस बात पर शेष चर्चा फिर कभी करेंगे।
मैंने करीब करीब पांच चाह वर्षों से मूल रूप से साहित्यिक कृतियों का अध्ययन किया।कुछ साहित्यिक लोगों से ज्ञान प्राप्त हुआ और उन्होंने शुल्क जैसे किसी भी बात का कभी जिक्र नहीं किया,उनके साहित्यिक सेवा भाव को देखते हुए,और उनके ज्ञान के सरोवर में स्नान करते हुए,उनको चरण स्पर्श करने में मुझे कोई झिझक महसूस नहीं हुई।
कुछ लोग जो कि साहित्यक ज्ञान देने के लिए, शुल्क निर्धारण करने के प्रति दिलचस्प हैं,दरअसल वो साहित्य के भविष्य और संस्कार दोनों से खिलवाड़ कर रहे हैं।भाषा कोई भी (हिंदी/उर्दू/अन्य)।
साहित्यक ज्ञान देने के बदले शुल्क लेना साहित्य के संस्कार से खिलवाड़ है। ऐसे लोगों का प्रोत्साहन करना बिलकुल भी सही नहीं है।
मैंने छोटे से साहित्यिक यात्रा के अवधि में , कई लोगों को बारीकियां समझाने की कोशिश की,ताकि जहां तक पहुंचने में मुझे सात आठ साल लगे वहां तक पहुंचने में अन्य साहित्यिक आकांक्षी को बिलकुल ही कम समय लग सके।
मैं किसी भी प्रकार के शुल्क के पक्ष में नहीं हूं , हां जिन्हें सिखाता हूं उनसे उम्मीद रखता हूं कि साहित्यिक संस्कार को तथागत रूप से आत्मसात् किए रहें ,और साहित्य को साधना मानकर समाज हित में लिखते रहें।
जो साहित्य को पेशा समझकर मार्केटिंग करना चाहते हैं, उनसे मैं कल भी दूर था आज भी दूर रहना चाहता हूं।
मुझे नहीं पता कि कितने लोग मेरे लेखों को पढ़ते हैं लेकिन इतना जरूर पता है कि अगर एक लोग भी मेरे एक लेख से प्रभावित हो जाएं तो मेरी साधना मेरे नज़र में सफल हो जाएगी।
मेरा मानना है कि साहित्य पूर्ण रूप से साधना है,जिसे खरीदने की कोशिश करने वाले बर्बाद हो जाएंगे किसी न किसी रूप से।यह बर्बादी भौतिक भले ही नहीं हो लेकिन मानसिक और नैतिक रूप से अवश्य होगी।
फेसबुक या अन्य सोसल मीडिया के माध्यमों पर,जो भी लोग दोष पूर्ण रचनाओं पर वाह करते हैं , मैं उनके साहित्यिक कृति के छाया से भी बचता हूं।
हां आप इस प्रकार के व्यकित्व रखने के अपराध के लिए मुझसे दुर्व्यहार कर सकते हैं ।आपका स्वागत है, किंतु आप अपने अंतश मन से खुद को अपराधी मानकर खुद को कोसते रहेंगे मैं विश्वस्त हूं।
एक समय था जब मुझे लगता था कि पत्रिकाओं में , किताबों में,अगर मेरी रचनाएं प्रकाशित हो तो ही मैं कवि हो पाऊंगा।जब तक महीने में दस बीस कवि सम्मेलन में भाग नहीं ले पाऊं, तब तक खुद को कवि मानना व्यर्थ है। लेकिन समय के साथ साथ साहितिक सृजन करना मेरे लिए चाहत और शौक़ के दायरे से निकलकर साधना में परिवर्तित होने लगा,,आज मैं साहित्य को साधना मानता हूं और साधना के लिए आवश्यक विभिन्न प्रकार के गतिविधियों में हिस्सा लेता हूं।
मुझे मंचों ,पत्रिकाओं , पुस्तकों इत्यादि में कोई रुचि नहीं है रुचि है तो सिर्फ़ और सिर्फ़ साहित्यक सामर्थ्य प्राप्त करने की कोशिश में। मैं प्रतिदिन साहित्य साधना में लीन रहने को बहाना ढूंढता रहता हूं।
कभी कल्पना में प्रेयसी तो, कभी चांद,कभी सबनम,कभी जुगनू,इत्यादि उथल पुथल मचाते रहते हैं और मेरा कोशिश रहता है कि नई और अद्वितीय उपमाओं को ढूंढ सकूं।
आज के लिए माफ़ी चाहता हूं ,,अगले लेख में पुनः हाज़िर होऊंगा कुछ नई और गहरी बात लेकर।
तक तक के लिए दीपक का “रुद्रा” का प्रणाम आपके चरणों में।आत्मीय आभार।
दीपक झा “रुद्रा”