#कविता
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■ क्या कहें किससे कहें?
【प्रणय प्रभात】
बोझ से रिश्ते हैं, दिल पे भार है।
चैन से जीना, बहुत दुश्वार है।।
घर के अंदर, साँप-सीढ़ी का है खेल,
इक चढ़ाता, दूसरा देता धकेल।।
सीढ़ियों साँपों में, भी गठजोड़ है।
राह में दो-चार पग पर मोड़ है।।
दिन में अमृत, रात वो लगता गरल।
हर पहेली नित्य, हो जाती सरल।।
ग्रंथियों का विष, उजागर हो रहा।
कष्ट जो नाला था, सागर हो रहा।।
छिद्र छल के, सामने आने लगे।
गाते-गाते स्वप्न, चिल्लाने लगे।।
दोगलापन सोच पर, हावी हुआ।
आज जैसा कष्टप्रद, भावी हुआ।।
धूप अमराई में, आने लग गई।
अपनी परछाई, डराने लग गई।।
मंथरा के मुख, कुटिल मुस्कान है।
फिर से होने को, अवध वीरान है।।
मूल्य नैतिकता, न कोई लाज है।
जितना विकृत, कल नहीं था आज है।।
रक्त-रंजित, आस्था की देह है।
छटपटाता, दम्भ-नीचे नेह है।।
काहे का घर, एक कारागार है।
छत के नीचे, मौन हर दीवार है।।
हर कोई, विषबेल सी है बो रहा।
क्या कहें, किससे कहें क्या हो रहा?
(शेष फिर कभी) 😢