नेह
नेह
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मनुज!तेरे ह्रदय में नेह का दीपक नहीं जलता है क्यूँ अब?
भाती नहीं है रागिनी अब कंठ की है वेदना उर में
जग के जलन में नेह की वह उर्वरा अब है नहीं
वादियाँ विष घोलती हैं,प्रेम के अंगार में।
चक्षु-पटल पर बस चुभन है,टीस है,एक दर्द है
भ्रम बना है जग ये सारा’उर’में नहीं कोई’रूह’है
रागिनी तुम लौट आओ,प्रेम और सौहार्द्र लेकर
जग को नयी एक’भोर’दो,आशीष तुम कुछ और दो।
~~~~~~अनिल कुमार मिश्र