कविता
अमृता (पंचचामर छंद )
रहे सदैव योग साध्य काम क्रोध मुक्त है।
न वासना कहीं दिखे शरीर भोग सुप्त है।
धरे विदेह सा शरीर ध्यान में उदारता।
प्रिया अमीर भाव पक्ष आत्म रूप अमृता।
दया कृपा विनायिका अथाह नम्र दृष्टि है।
विधान ब्रह्म ने रचा विशिष्ट प्रेम सृष्टि है।
न राग है न द्वेष वृत्ति एक मात्र सत्यता।
सुहाग की खुमार प्रीति दिव्य रीति अमृता।
नहीं कभी निराश हो विकल्प की तलाश है।
बढ़े सदैव अग्र अग्र देखती प्रकाश है।
गढ़े अनंत स्नेह कोश सभ्य छांव अस्मिता।
दिखे नहीं विकार दोष शिष्ट नित्य अमृता।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।