कविता
चला गया
लोभ जाल फांस में मनुष्य आज कैद है।
लालची प्रवृत्ति मारता चला गया।।
काम वासना सता रही समग्र लोक को।
योग साधना रथी बना चला गया।।
क्रोध पाप मूल है उदीय देह तंत्र से।
शांत चित्त हो बढ़ा चढ़ा चला गया।।
मोह रात्रि के समान दुर्ग सा अजेय है।
ब्रह्म ध्यान मग्न हो सुधाम को चला गया।।
चूर दर्प में पड़ा मनुष्य आज क्रूर है।
नर्म भावना लिए विनम्र हो चला गया।।
जाग जाग रात को जगा रहा भविष्य को।
भाग्य कर्म साज़ता बखानता चला गया।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।