पुस्तक
पुस्तक ही तो हैं मैं,तुम हम-सब।
कोई न कोई पन्ना
मेरा तुम्हारा या हम सबका
संवेदनाओं में भीगा
अस्पष्ट से धुंधलाते आखर
कहां पढ़ पाये एक दूसरे को हम
पुस्तक ही तो हैं …………..हम।
……….
जीवन की आपाधापी में
छुटी कुछ कर गुजरने की चाह,
अधखिले सपने
सपनों के मुड़े पन्ने लिए बैठे हम
पुस्तक ही तो हैं …………..हम।
………..
जीवन के प्रथम पृष्ठ पर
लिखा मेरा तुम्हारा संयुक्त नाम
सामंजस्य भरी व्याकरण की अनदेखी में
कहां मिल पाए आखरी पृष्ठ तक हम
पुस्तक ही तो हैं मैं………….हम।
………….
जीवन चक्र के पन्नों पर अंकित
अतीत, वर्तमान, भविष्य
बांचने में उपेक्षित, अंततः मलाल लिए हम
पुस्तक ही तो हैं …………..हम।
………….
चलती-फिरती ज़िन्दगी
खुली-अधखुली पुस्तक की मानिंद
कोई पढ़ी-बिनपढ़ी अगिणत राज लिए हम
पुस्तक ही तो हैं …………..हम।
……..
बढ़ती ऊमर में घटित अनुभूत
पूर्ण व्यक्तित्व का चित्रण
उपेक्षा की ताक से उतर
स्वयं मुखरित होने को आतुर हम
पुस्तक ही तो हैं …………हम।
………
कितना कुछ रह जाता है
अनगढ़ा सा अनपढ़ा सा पुस्तक सा
हम सब में…….।
पुस्तकें कभी निरुद्देश्य नहीं होती
परिपक्व हैं अपनी अपनी व्यवस्थिति में।
संगीता बैनीवाल
25-12-2022