कविता
श्रद्धा हो या हो निकिता
क्यों बहकावे में आती हो.
तुम शक्ति हो तुम हो स्वधा.
क्यों यूं निर्बल बन जाती हो.
जब संवेदित हैं सारी इन्द्री.
और छठी इन्द्री भी पास तेरे..
तब क्यों भावों मे बहकर के
तुम प्रेम विवश हो जाती हो ..
तुम सीता के वंशज से हो
पावन निर्मल सी बहो सदा.
क्यों रावण राम मे अब तक भी
तुम भेद नही कर पाती हो.,
क्यों संस्कारों को त्याग के तुम
परिणय का मान नहीं करती.
परिणय से पहले क्यों तुम यूं
परपुरुष के संग रह पाती हो.
छल करती हो मां बाबा से
मन के हर भेद छुपाती हो.
क्यों बहकावे में आती हो.
क्यों बहकावे मे आती हो.
तुम भटक रही तुम उलझ रही.
तुम समझो और सँभल जाओ.
आकाश छुओ ,उड़ो ऊँचा..
पर धरती का मत त्याग करों
है भारत की भूमि पावन.
इसके गौरव का मान करो.
पश्चिम से होकर के लोभित
क्यों कलुषता अपनाती हो..
विश्वास न करो नहीं कहती
लेकिन न अंधविश्वास करो..
जीवन को सरल बनाने मे
तुम और कठिन न राह करो
जागों जागों मन से जागों ..
कुइच्छाओं का त्याग करो
संक्षिप्त मार्ग के चक्कर में.
अब और न जीवन से भागो.
अब और न जीवन से भागों.
मनीषा जोशी मनी..