कविता
111…. स्वर्णमुखी छंद ( सानेट )
जहां थिरकता सच्चा मन है,
प्यारा भारत कहलाता है,
वह सुंदर राह दिखाता है,
उत्तम भारत सभ्य वतन है।
जहां ज्ञान की बातें होती,
विद्या मां का यह आलय है,
मोक्ष प्रदाता विद्यालय है,
मस्तानी शिवरातें होतीं।
मत पूछो भारत की महिमा,
यही विश्व को वेद पढ़ाता,
रामचरित का मंत्र बताता,
सदा शीर्ष पर इसकी गरिमा।
भारतीय संस्कृति सर्वोत्तम।
इसमें बैठे शिव पुरुषोत्तम।।
112…. करवा चौथ पर दोहे
पति को ईश्वर मान कर, सदा सुहागन नार।
व्रत रख करवा चौथ का, करती रहती प्यार।।
नारी की निधि पति सदा, पति देवता महान।
पतिव्रता नारी सहज, हरदम रखती ध्यान।।
पति उसका श्रृंगार है, पति ही शिव सिंदूर।
सतत निकट की चाह है, यह इच्छा भरपूर।।
पति रहता है हृदय में, पत्नी रखती पास।
पति बिन नारी है सदा, अतिशय दुखी उदास।।
देख चांद को तोड़ती, संकल्पित व्रत धर्म।
दिव्य सुहागन नारि का, यह मंतव्य सुकर्म।।
पति पत्नी का अर्थ है, वह जीवन का भाव।
पति बिन नारी झेलती, सदा हृदय का घाव।।
113…. करवा चौथ का व्रत (सरसी छंद)
व्रत रखती हैं आज सुहागन,
कर सोलह श्रृंगार।
उनके जीवन का यह पावन,
अति मोहक त्योहार।
नारी का यह पर्व त्याग का,
प्रिय पातिव्रत धर्म।
जल बिन कष्ट सहन करती है,
है आध्यात्मिक कर्म।
सदा सुहागन नारी कहती,
पति ही उसके ईश।
राधा बन कर स्वयं थिरकती ,
कृष्ण द्वारिकाधीश।
सत्यवान का प्राण बचाता,
सावित्री का पुण्य।
ऐसी उत्तम नारी बिन यह,
धरा धाम है शून्य।
सीता जी का आश्रय लेकर,
राम बने भगवान।
रावण वध कर डंका पीटे,
जग में है यशगान।
पत्नी पति का भाग्य प्रबल है,
पति पाता सम्मान।
धर्म नायिका प्रीति गायिका,
पत्नी ज्ञान निधन।
आगे बढ़ता उन्नति करता,
पति पा पत्नी संग।
बनी प्रेमिका सदा खेलती,
पत्नी पति से रंग।
कृष्ण पक्ष की सहज चांदनी,
पत्नी दिव्य महान।
सदा भाग्यश्री नारी रखती,
अपने पति पर ध्यान।
करवा चौथ महान पर्व है,
त्याग तपस्या भाव।
भारतीय संस्कृति की वाहक,
पत्नी मधुर स्वभाव।
114….. मरहठा छंद
10/8/11
वह सज्जन प्यारा, जग में न्यारा, पाता सबका प्यार।
सबका हितकारी, दुनिया सारी, का चाहत उद्धार।।
जो सेवक बनकर, करता रहता, मानव का कल्याण।
अति वंदनीय वह, पूजा जाता, बनता सबका प्राण।
नहिं मोह निशा हैं, अर्घ्य सूर्य को, देता वह दिन रैन।
नित नवल चमकता, हरदम हंसता, कभी नहीं बेचैन।।
वह सबकुछ त्यागत, माया भागत, प्रभु चरणों में शीश।
निज सहज झुकाता , दर्शन पाता, मिलता है आशीष।।
ईश्वर को भजता, सबमें भरता, खुशियों का भंडार।
पापों से दूरी, सदा बनाता, करता शुभद प्रचार।।
बनकर समदर्शी प्राणि हितैषी, करता सबसे प्यार।
निर्मल मानवता, सत्य सहजता, शुचितापूर्ण विचार।।
115….. स्वर्णमुखी छंद (सांनेट)
सभ्य समाज वही कहलाता,
जिसमें शिष्टाचार भरा है,
सुंदर भाव विचार हरा है,
वही समाज स्वस्थ कहलाता।
निर्मल मन की नीर नदी है,
पावन उर का भाव विचरता,
पग से शिख तक अंग चमकता,
सात्विक युग की दिव्य सदी है।
जहां थिरकता सच्चा मन है,
वही धाम प्रिय बन जाता है,
राम अवधपुर दिख जाता है,
वही सुगंधित सुंदर वन है।
सज्जन बनकर जीना सीखो।
मधुर प्रीति रस पीना सीखो।।
116….. हरिहरपुरी के सजल
सज्जनता औषधि स्वयं, करे सुखद उपचार।
संतों के मृदु भाव से, बहता रहता प्यार।।
मीठी वाणी में बसा, हुआ स्वास्थ्य का पुंज।
सज्जन करते बोल कर, मधुर सरस व्यवहार।।
स्वस्थ वही मानव सहज, जिसके अमृत बोल।
बात किया करता सरल, सदा शिष्ट आचार।।
दवा दुआ है प्रेम में, नित सज्जन के संग।
सज्जनता की नींव पर, खड़ा रहे संसार।।
गर्मजोश इंसान है, प्रभु का निर्मल धाम।
बना चिकित्सक कर रहा, रोगी का सत्कार।।
दुखी देखकर रो पड़े, उत्तम मानव ईश।
अति संवेदनशीलता, ही जीवन का सार।।
पावन मन मंदिर सदा, है औषधि का गेह।
मन वाणी सत्कर्म से, कर सबको स्वीकार।।
117…. विधाता छंद
मजे की बात यह जानो, बड़ा चालाक बनता है।
बहुत है धूर्त अति दूषित, बहुत नापाक लगता है।
करता काम अपना है, रखे बंदूक औरों पर।
पिलाता घूंट आंसू के, दिखाता धौंस गैरों पर।
लगाता ढेर शस्त्रों की, सदा है खोजता क्रेता।
भिड़ाता रात दिन रहता, मजा वह हर समय लेता।
सदा कमजोर का रक्षक, बना वह सोचता रहता।
किया करता सतत विक्रय,सहज वह नोचने लगता।
कहीं का छोड़ता उसको, नहीं वह पाप का भागी।
हमेशा के लिए वह तोड़, रख देता अधम दागी।
अहंकारी असुर बनकर, सतत दिन रात चलता है।
सताता निर्बलों को है, स्वयं की जेब भरता है।
प्रदर्शन ही मिशन उसका, बना दानव मचलता है।
बहुत ही क्रूर भावों में, भयंकर चाल च्लता है।
उसे शिक्षा जरूरी है, उठे कोई सजा दे दे।
समय की मांग भी यह है, पटक उसको मजा ले ले।
118…. आल्हा छंद/वीर रस
भारतीय सांस्कृतिक सनातन, यही विश्व का सर्व महान।
यह अनंत इतिहास पुरातन, प्रिय सर्वोत्तम मानव ज्ञान।
इसके रचनाकार मनीषी, ऋषि मुनियों का यह विज्ञान।
घोर तपस्या का शुभ फल है, अति मनमोहक वृत्त पुरान।।
यह प्रासंगिक सदा रहेगा, इसका मूल रूप पहचान।
परम हितैषी यह जीवों का, सबमें देखे शिव भगवान।
मानववादी घोर अहिंसक, इसको सच्चाई का भान।।
प्रेम किया करता कण कण से, चींटी हाथी एक समान।।
करुणावादी समतावादी, सहज शांति रस का संज्ञान।
प्रेम परस्पर सत्य प्राथमिक, शिष्टाचार अमित रसखान।
द्वेष भाव को ठोकर मारे, गढ़ता है पावन इंसान।
अधिवक्ता यह नैतिकता का, इसमें स्वाभिमान सम्मान।।
119….. मिश्र कविराय की कुंडलिया
सजनी मेरी प्रेयसी, भगिनी मात दयाल।
रक्षा करती रात दिन, रखती हरदम ख्याल।।
रखती हरदम ख्याल, अपलक देखा वह करे।
प्रेमिल स्नेहिल भाव, सदा संगिनी दुख हरे।।
कहें मिश्र कविराय, हृदय विराट सहज धनी।
अतिशय मधुर स्वभाव, बहुत मनमोहक सजनी।।
सजनी सुंदर रूपमय, कोमल मृदु मुस्कान।
साजन को दिल में रखे, सदा उसी पर ध्यान।।
सदा उसी पर ध्यान, प्रेम से बातें करती।
हरती सारे शोक, शांति सुख देती रहती।।
कहें मिश्र कविराय, लिखती अपनी जीवनी।
सुख दुख एक समान, समझती प्यारी सजनी।।
सजनी साधारण सरल, थोड़े में संतुष्ट।
लिप्सा से मतलब नहीं, कर्म योग संपुष्ट।।
कर्म योग संपुष्ट, निरंतर चलती रहती।
करती सारे काम, मोहिनी उत्तम लगती।।
कहें मिश्र कविराय, गृह कारज में नित सनी।
लक्ष्मी वह साक्षात, शक्ति अनुपम है सजनी।।
120….. मदिरा सवैया
साजन के बिन आहत है, सजनी बस रोवत जागत है।
भागत है मन सांग पिया, नहिं ठौर कहीं वह पावत है।
सोचत है दिन रात यही, बस साजन राग अलापत है।
काटत वक्त नहीं कटता, नयना बस नीर बहावत है।
भूख नहीं लगती उसको, मन में बस साजन आवत है।
भोगत कष्ट सदा सजनी, तन क्षीण लगे दुख गावत है।
होय निराश हताश करे पर, क्या किससे वह बात कहे।
आंगन सून पड़ा बिखरा उर, रोग वियोग जुबान दहे।
121…. दुर्मिल सवैया
सजनी कहती सजना सुनता, सजना कहता सजनी सुनती।
रहते नजदीक चला करते, सजनी सजना मन को लखती।
मुंह में मुंह डाल किया करती, हर बात बतावत है सजनी।
न छिपावत है इक तथ्य कभी, न दुराव कभी रखती सुगनी।
मधु प्यार अपार भरा मन में, अति स्नेह सदा झलका करता।
व्यवहार सुशिष्ट सदा मनमोहक, ध्यान सदा छलका करता।
अति श्लाघ्य सुकोमल तंत्र महा, अहसास मनोहर मादक है।
अजपाजप मंत्र चला करता, सजनी सजना मन लायक है।
122…. आल्हा शैली/वीर रस
हिंद देश के कलम सिपाही, लिखते पावन दिव्य विचार।
भारत वर्ष देश अति प्यारा, इसकी महिमा जग विख्यात।
अति असीम यह सभ्य देश है, वंदन हो इसका दिन रात।।
यह प्रतिनिधि सच्चे मानव का, इसका उज्ज्वल अमृत सार।
हिंद देश के कलम सिपाही, लिखते पावन दिव्य विचार।।
हिंदी हिंदुस्तान अनोखा, यह निर्मल गंगा की धार।
अजर अमर इतिहास निराला, इसमें भरा हुआ है प्यार।।
सात्विकता की जीवित प्रतिमा, अति विशुद्ध इसका संसार।
हिंद देश के कलम सिपाही, लिखते पावन दिव्य विचार।।
सहनशीलता कण कण में है, यह मानवता का है गांव।
हरित क्रांति लाता जन मन में, देता सबको मधुरिम छांव।।
सकल विश्व की यह काया है, देता रहता स्नेह अपार।
हिंद देश के कलम सिपाही, लिखते पावन दिव्य विचार।।
123…. सजल
दीप जले नित प्रेम का, दिल में रहे प्रकाश।
सबके प्रति सद्भावना, करे तिमिर का नाश।।
उन्नत मन से नित्य हो, सबके प्रति प्रिय भाव।
जागृत हो भू लोक पर, अजर अमर अविनाश।।
दीपोत्सव का अर्थ हो, दीपक हो यह देह।
सहज परस्पर स्नेह से, गूंज उठे आकाश।।
दीवाली वह शब्द है, जिसका व्यापक मोल।
पिण्ड पिण्ड मंदिर बने, खुश हों सभी निराश।।
मन के कोमल तंत्र का, करते रहो प्रसार।
अंगड़ाई ले चांदनी, चांद न होय हताश।।
देवगणों की विजय हो, हारे मिथ्याचार।
सच्चाई की लौ जले, राक्षस सत्यानाश।।
124….. चौपाई (सत्युग)
सत्युग सत्य काल का द्योतक।
सच्चे इंसानों का पोषक।।
सात्विक भावों की यह धारा।
सब कुछ दिखता अनुपम प्यारा।।
ब्रह्म मुहुर्त सदा रहता है।
सबमें निर्मल मन बसता है।।
बुद्धि सुगंधित मानववादी।
है विवेक अतुलित शिववादी।।
परमारथ का यह विद्यालय।
श्वेत साफ स्वच्छ दृढ़ आलय।।
दिव्य मनोहर अविरल सागर।
सत्व सरल सहजामृत साक्षर।।
सबमें ब्रह्मणत्व दिखता है।
हर मानव कविता लिखता है।
महा काव्य की रचना होती।
नैतिकता मधु रोटी पोती।।
द्वेष कपट का अंत काल है।
माया रहित अदम्म्य चाल है।
यहां सभी अपने लगते हैं।
दैत्य दनुज भगने लगाते हैं।।
सत शिव सुंदर सब खुश रहते।
आत्मवाद का किस्सा कहते।।
लोकातीत मूल्य का गायन।
भोगवाद लगता जिमि डायन।।
दुग्ध पवित्र नीर अति पावन।
मंद पवन शीतल मनभावन।।
भीतर बाहर गंगा बहती।
मनोवृत्ति में शुचिता रहती।।
125…. दोहा
बलि का बकरा जो बने,उसको मुरख जान।
बुद्धिहीनता की यही, है असली पहचान।।
उकसावे में आ सदा, करता है हर काम।
छिपी सोच में मूर्खता, किंतु चाहता नाम।।
बहकावे में नित करे, अपना काम तमाम।
फंस जाने पर ले रहा, वह गाली का नाम।।
छल प्रपंच के चक्र में, देता अपनी जान।
बुद्धिहीन को है नहीं, इस दुनिया का ज्ञान।।
धूर्तों के दुश्चक्र से, बचना नहिं आसान।
सावधान रहता सदा, बुद्धिमान इंसान।।
दो सशक्त दुश्मन प्रबल, का छोड़े जो चक्र।
उस चालाक मनुष्य का, क्या कर सकता वक्र??
आकांक्षा लालच बुरी, दिल से इनको जान।
मूल्यांकन औकात की, कर खुद को पहचान।।
कूद पड़ा कमजोर जो, गया नरक के द्वार।
नहीं बचाने के लिए, कोई भी तैयार।।
फूट फूट कर रो रहा, जगती हंसती आज।
निर्बल हो बलवान बन, तब कर खुद पर नाज।।
126….. स्वर्णमुखी छंद (सानेट)
निर्मल मन सचमुच में प्यासा।
भूख लगी है इसे प्यार की।
मनोकामना इसे यार की।
दिखता पर यह सदा उदासा।
चाहत इसकी पूरी होगी।
सच्चे दिल से चाह रहा है।
कर जोड़े यह मांग रहा है।
यह यात्रा क्या पूरी होगी?
बहुत तमन्ना पाले मन में।
मंजिल दूर दिखाई देता।
बहुत थकित पंथी दुख खेता।
होता यह हताश जीवन में।
काट चलो यह लौकिक बंधन।
करो प्रेम से ईश्वर वंदन।।
127…. मरहठा छंद (धनतेरस)
धनतेरस आया, खुशियां लाया, लक्ष्मी संग गणेश।
दिल से पूजन हो, मधुर भजन हो, हर्षित विष्णु महेश।
मन सिंधु मथन से, देव यतन से, रत्नों का भंडार।
पाई यह जगती, हर्षित धरती, धनवंतरि अवतार।।
श्री कार्तिक कृष्णा, त्रयोदशी तिथि, अति पावन है पर्व।
यह काल सुहावन, हिंदु लुभावन, करते हम सब गर्व।।
है दिव्य पुनीता, कंचन क्रेता, बनते सब धनवान।
दीवाली जगमग, करती पग पग, मिलता प्रभु से ज्ञान।।
उर में शुभ मति है, अद्भुत गति है, मन नभगामी होत।
छूता गगनांचल, यह मन चंचल, दिव्य भाव का स्रोत।।
त्योहार सनातन, पुलकित जन जन, नव जीवन का भाव।
यह हिंदू वसुधा, खुशदिल विविधा, मोहित मनुज स्वभाव।।
128…. अमृत ध्वनि छंद (दुलहन)
मात्रा भार 24
सर्वोत्तम दुलहन सदा, देती पति को प्यार।
जैसे माता पुत्र की, दिखती है रखवार।।
दुल्हन उत्तम, अतिशय अनुपम, देखत प्रियतम।
कहीं न जाती, स्नेह दिखाती, सर्व उच्चतम।
रूप निराला, जिमि मधु प्याला, कोमल वाणी।
परम मनोहर, सुखद सरोवर, अति प्रिय प्राणी।
दुलहन जैसा सज दिखे, दीपोत्सव त्योहार।
प्रेम परस्पर मिलन का, यह उत्कर्ष विचार।।
प्रीति अनोखी, निर्मल रसमय, पावन शुभमय।
दीपोत्सव है, शुभ उत्सव है, अति प्रिय शिवमय।
जिसको भाता, पति का नाता, मधु मनहारी।
दुलहन प्यारी, बहुत दुलारी, नित सुखकारी।
वह दुलहन अति प्रियतमा, जो पति को परमेश।
सहज मानती नित्य है, बनकर उमामहेश।।
रमती रहती, चलती रहती, बातें करती।
सदा चहकती, दिल से मिलती, मधुर महकती।
कोमल बदना, मोहक वचना, प्रिय शिवकारी।
दिल सहयोगी, सदा निरोगी, सुंदर नारी।
129…. त्रिभंगी छंद
10/8/8/6
वह अति बड़ भागी, प्रभु अनुरागी, जन सहभागी, बन चलता।
सबके प्रति ममता, दिल में समता, दयावान बन, नित रहता।
प्रिय हृदय विशाला, कर में प्याला, कंचन जैसा, चमकत है।
नहिं क्रोध कभी है, नहिं दंभी है, शांत पथिक बन, चहकत है।
उर आंगन मोहक, जग का पोषक, विनय भावना, नृत्य करे।
मन सुंदर सत्यम, सहज शिवम सम,जगत हृदय धर, प्रीति करे।
मधुरा सुधरा बन, विनय बदर तन, झमझम झमझम, नीर भरे।
भावुकता जागे, नैतिक आगे, राग अलापे, हाथ धरे।
130…. मधु मालती छंद
7/7/7/7
चले आना, वहां मिलना, जहां केवल, तुम्हीं हम हों।
नहीं भूलो, कभी इसको, सदा मन से, मिटे गम हों।
तुम्हें पाकर, खुशी होगी, निराला मन, सहज गमके।
जरा इस पर, करो चिंतन, जरूरी है, हृदय महके।
तुम्हें मन कर, रहा देखें, लिपट जाएं, उजाला हो।
तिमिर मन का, छटे हरदम, दिवाकर का, शिवाला हो।
यही तुमसे, निवेदन है, इसे स्वीकृति, सहज देना।
रुको मत तुम,अभी आओ, हृदय धड़कन, समझ लेना।
131…. तुलसी छंद
10/8/12
शिव भारत प्यारा, विश्व सितारा, यह सबका सहयोगी।
सब लोग यहां के, सुह्रद जगत के, सबके सब हैं योगी।
निष्कपट भाव है, स्नेह छांव है, सब लगते अति प्रेमिल।
सबमें अनुरागा, मानव जागा, रसना अतिशय स्नेहिल।
है कोमल मनुजा, अनुजा तनुजा, सबके उर अमृत है।
सब भावुक हृदया, दया धर्ममय, जिह्वा पर संस्कृत है।
मधु रस से सिंचित, निर्मल वाणी, से बहती रस धारा।
अतिशय व्यापक है, शुभमत प्यारा,भारत देश हमारा।
132….. विधाता छंद
1222 1222, 1222 1222
परिंदा बन सदा उड़ना, जियो मस्ती भरा जीवन।
करो प्रिय कल्पना मोहक, बसाओ एक सुंदर वन।
नहीं तरसे कभी मन यह, सदा रंगीन बगिया हो।
कभी डूबो कभी तैरो, सुहानी गंग नदिया हो।
नहीं किस्मत कभी कोसो, सहज पुरुषार्थ करते चल।
पसीना नित बहाते रह, परिश्रम कर सदा केवल।
युवा बन कर दिखो हरदम, मनोबल उच्च हो जगमग।
चकाचक प्रेम से जीना, जगत में नाम कर पग पग।
नहीं कुंठित कभी होना, सदा हर्षित रहा करना।
बने पावन पवन बहना, जहां चाहो वहीं रहना।
सताए जो तुझे कोई, नहीं संवाद उससे कर।
अलापो राग उत्तम को,अकेला ही सुगम पथ धर।
133…. पद्मावती छंद
10/8/14
जो कोशिश करता, चलता रहता, बढ़ता जाता हिम गिरि पर।
परवाह न करता, आगे क्या है, क्रमशः चढ़ता फूंक फूंक कर।
है बाएं दाएं, गहरी खाई, सावधान नियमित दिखता।
वह गिर जाने पर, फिर उठता है, इतिहास अमर नित लिखता।
उद्देश्य अटल हो, दूर दृष्टि हो, नेक इरादा मन में हो।
भूतल से उठने, की इच्छा हो, ऊर्जा मनबल दिल में हो।
गिरने से मानव, जो नहिं डरता, वही सफल हो जाता है।
है जिसके भीतर, मंजिल मुखड़ा, वही लक्ष्य को पाता है।
134…. शिव छंद
मात्रा भार 11
प्रेम भाव जाग रे,
प्रीति रीति मांग रे,
है यही सशक्त रे,
जिंदगी संवार रे।
सुष्ठ भाव निर्मला,
पुष्ट स्नेह उज्ज्वला,
कागजी रहे नहीं,
दिल मिले सदा सही।
लांघ जा समुद्र को,
हाथ जोड़ रुद्र को,
रुक न जा तु राह में,
चल बढ़ो अथाह में।
135…. शक्ति छंद
मात्रा भार 18
मापनी 122 122 122 12
चलो प्यार करते बने जिंदगी।
रखो स्नेह दिल से करो बंदगी।।
नहीं जिंदगी का ठिकाना यहां।
चलेगा न कोई बहाना यहां।।
बहो वेग में नीर धारा बनो।
गगन का सदा शुभ सितारा बनो।।
बनो वृक्ष फलदार जग के लिए।
रहे कामना दिव्य सबके लिए।।
मनोरथ यही एक सबमें जगे।
सदा यह जगत शुभ्र मधुरिम लगे।।
सभी में रहे भाव निर्मल सदा।
इसी जीवनी का नशा सर्वदा।।
रहे कर्म मोहक यही चाव हो।
बहे धर्म पावन यही भाव हो।।
बनें शांति के दूत मानव यहां।
दिखाई न दें दुष्ट दानव यहां।।
चले जात सब हैं न रुकते यहां।
गमन आगमन सिलसिला है यहां।।
136….. मनोरम छंद
मापनी 2122 2122
देश हित में काम होगा।
संत का तब धाम होगा।
राष्ट्र उन्नति नित करेगा।
स्वर्ग अपना हुं भरेगा।
राजधानी को सजाओ।
शुभ महल उत्तम बनाओ।
लें बसेरा अब मनुज सब।
दीप चमकीला जले तब।
हिंद संस्कृति जब फलेगी।
पूर्ण मानवता खिलेगी।
विश्व का उद्धार होगा।
शुद्ध शिष्टाचार होगा।
प्राण से बढ़ कर कहीं कुछ।
है कहीं तो देश सचमुच।
देश का जो ख्याल रखता।
एक प्रिय इतिहास रचता।
137……. राधेश्यामी छंद
एक चरण में 32 मात्रा
16 ,16 मात्रा पर यति
दो चरण तुकांत
कुल 4 चरण
कृष्ण सुनावत प्रेम कथा नित, सुंदर मोहक भाव भरे हैं।
प्यार प्रशिक्षण होय सदा सब ,के उर पर कर स्नेह धरे हैं।
दिव्य अदा प्रिय चाल मनोहर, रूप विशिष्ट सदा सुखदायी।
नेह सिखावत हैं जग को प्रभु, गीत सुनावत हैं मदमायी।
प्रीति सुनीति बतावत गावत, दृश्य अमोल दिखावत भावत।
सखियां सब मस्त दिखें मधुवन, झूमत हैं सब ढोल बजावत।
अनुराग प्रसन्न सुखी सहजा , रति काम सुशोभित बीन बजे।
प्रेम प्रसंग जहां छिड़ता तहं, मधु पोषक रोचक श्याम सजे।
138…. दुर्मिल सवैया
अहसान नहीं वह मानत है, जिसमें अति दूषित भाव भरा।
उपकार नहीं वह जानत है, जिसका दिल पत्थर औ कचरा।
अति स्वारथ दृष्टि जहां रहती, वह दानव नीच अपावन है।
परमारथ के उर में बसते, शशि धेनु अमी मणि पावन हैं।
अहसास नहीं करता अपकार, कभी सहयोग सुदर्शन का।
अति क्रूर बना चलता रहता, नहिं भाव सुगंधित चंदन का।
अपने हित में वह जीवित है, पर के प्रति उत्तम सृष्टि नहीं।
कृतकृत्य नहीं उसको प्रिय है, हरहाल सुहावनि वृष्टि नहीं।
139….. आल्हा शैली/वीर रस
नीच बुद्धि है नहीं सुधरती, चलती रहती गंदी चाल।
चाहे उसको जितना पीटो, फिर भी जस का तस है हाल।
अहंकार का सड़ियल नाला, कहता खुद को नैनीताल।
अजीवन लतियाया जाता, फिर भी चलता सदा कुचाल।
भू भागों पर कब्जा करने, को आतुर वह नित बेहाल।
समझाने पर नहीं मानता, बातों को देता है टाल।
घोर विरोधी लोकतंत्र का, चाह रहा बनना महिपाल।
महा शक्ति बनने को व्याकुल, टेढ़ी भृकुटी डेढ़ कपाल।
नहीं सौम्यता अच्छी लगती, कपटी मायावी हरहाल।
विश्व विजेता बनने का मन, किंतु हृदय में सहज अकाल।
बिन भोजन के मरता रहता, ओढ़े चलता दूषित खाल।
बदबू बनकर स्वयं घूमता, कहता खुद को अति खुशहाल।
बहुत जटिल उसकी संरचना, चाह रहा आए भूचाल।
सजल जगत में निंदनीय वह, स्वेच्छाचारी संकट काल।
कहता कुछ है करता उल्टा, नहीं भरोसे का वह लाल।
खाता रहता लात हमेशा, किंतु उड़ा कर चलता बाल।
है निर्लज्ज अशोभा जग का, बुनता हरदम पापी जाल।
दुष्प्रचार में माहिर बनकर, करता अपना सदा प्रचार।
ललकारो ऐसे राक्षस को, जो पाखंडी मिथ्याचार।
कभी तवज्जो उसे न देना, जो दानवता का है सार।
त्रेता द्वापर युग आएं अब, राम कृष्ण का हो अवतार।
140…. कुंडलिया
हुकुमत कभी चले नहीं, जिसमें हो अन्याय।
आज्ञा से अवसर भला, जिससे प्रेरित न्याय।।
जिससे प्रेरित न्याय, वही सबको करना है।
सर्वोचित प्रिय पंथ, सभी को उर रखना है।।
कहें मिश्र कविराय, रहो अच्छे पर सहमत।
जग में करे न राज, कभी भी गंदी हुकुमत।।
हुकुमत मानवपरक हो, लाए उत्तम राज।
मानवतावादी समझ, से हों सारे काज।।
से कर सारे काज, मनुज अनमोल दिवाकर।
मन में सेवा भाव, स्वयं में है रत्नाकर।।
कहें मिश्र कविराय, कभी मत पालो गफलत।
समुचित होय विचार, इसी पर केंद्रित हुकुमत।।
141…. पद्मावती छंद
10/8/14
नित देखो सुंदर, बनो धुरंधर, सीखो उत्तम काम सखे।
परहित की सोचो, आंसू पोंछो, धरा धाम शुचि शुद्ध दिखे।
पावन प्रतिमा गढ़, आगे को बढ़, यह जग अमृत स्वाद चखे।
आकर्षण आए, सब मिल गाएं, जनमानस सद्ग्रंथ लिखे।
सबका कोमल मन, शुभ शिव तन धन, सात्विक चिंतन राग मिले।
दिल में मोहकता, स्थायी स्थिरता, मुखड़ों पर मुस्कान खिले।
प्रिय भाव परस्पर, स्नेह निरंतर, सबके भीतर नित जागे।
जब द्वेष मिटेगा, हृदय हंसेगा, मनोरोग निश्चित भागे।
142….. तुलसी विवाह/माहात्म्य
आल्हा शैली/वीर रस
असुर जलंधर महा प्रतापी, अति बलशाली उन्नत भाल।
उसकी पत्नी वृंदा देवी, पतिव्रता पति की रखवाल।
वृंदा सात्विक सौम्य प्रतिष्ठित, सत्य सुहागिन दिव्य सुचाल।
पति को वह परमेश्वर माने, करती रहती रक्षपाल।
अत्याचारी सदा जलंधर, एकबार पहुंचा कैलाश।
देख उमा को आकर्षित था, किंतु किया अपना ही नाश।
शिव से युद्ध किया कुविचारी, महा युद्ध यह अति घनघोर।
राक्षस का वध बहुत असंभव, यह घटना पहुंची चहुंओर।
संभव था उसका वध केवल, यदि वृंदा की होती हार।
महारथी तब विष्णु बने हैं, लिए जलंधर का आकार।
भंग हुआ वृंदा चरित्र तब, मारा गया जलंधर नीच।
विजय हुई तब शिव शंकर की, इस सारी दुनिया के बीच।
वृंदा को जब पता चला छल, जल कर भस्म हुई वह राख।
देख दशा हरि दुखी हुए हैं, रखा उन्होंने अपनी साख।
वृंदा को आशीष दिए प्रभु, बन जाओ तुलसी का पेड़।
पूजी जाओगी जगती में, तेरे आगे सब कुछ रेड़ ।
सदा चढ़ोगी शिव मस्तक पर, ईश्वर के सिर पर भी रोज।
अति पावन तुम कहलाओगी, जगत करेगा तेरी खोज।
दिव्यायुष तुम सकल धरा पर, विश्व रहेगा सदा निरोग।
जहां कहीं भी तुम दिख जाओ, यह कहलाएगा शुभ योग।
तुलसी संग सहज रघुनायक, तेरी महिमा अपरंपार।
अजर अमर इतिहास तुम्हारा, तुम पाओगी सब का प्यार।
143…. वाम सवैया
नकार न प्यार उधार नहीं अति सुंदर मोहक रूप यही है।
मिले यदि यार सदा सुख दे वर दे उर दे मधु खूब वही है।
दुलार करे अपने हिय में रख साहस दाढ़स देत सही है।
अपावन भाव नहीं रखता मन से सुकुमार अशांत नहीं है।
निरोग वही जिसको मिलता अति कोमल मोहक प्रेम सदा है।
सुयोग इसे कहती जगती जिसके कर में प्रिय स्नेह गदा है।
अभाव नहीं वह झेलत है नित मस्त सदा चलता फिरता है।
सप्रेम विनम्र बना दिखता उस मानव को शिव प्यार बदा है।
144….. ताण्डव छंद
चलो जहां प्रभाव शैव राम धाम छांव हो।
बढ़े सदा कदम सतत विधान देव गांव हो।
रुको नहीं झुको नहीं करस्थ धर्म ग्रंथ हो।
स्व नाम धन्य हो सदा सुकर्म भव्य पंथ हो।
रहे न काम एक भी अनाम राम जाप हो।
जपा करो तपा करो कटे अनिष्ट पाप हो।
सुवास हो सुगंध हो गुलाब पुष्प वाटिका।
सहर्ष दिव्य भावना रचे सुकृत्य नाटिका।
145…लौटती यादें
याद तुम्हारी तब आती है, जब तुम मेरे पास न होते।
बहुत सताते हो तुम प्यारे, हे मनमीत जागते सोते।।
तड़पन में बस एक तुम्हीं हो, बता कहां तक तड़पाओगे।
सृजन न होगा एक कभी भी, जबतक तुम आ जाओगे।।
साथ तुम्हारा वैसा ही था, जैसा मेरा मन चाहा था।
बहुत दिनों तक किया प्रतीक्षा, तब जा कर पाया था।।
रहते थे हम दोनों मिलकर, एक जगह पर बैठा करते।
प्रेम परस्पर हिलना मिलना, हंसते गाते चलते फिरते।।
कर में कर डाले चलते थे, कितना सुखमय जीवन था।
भ्रमण किया करते हम दोनों, अतिशतय आह्लादित तन मन था।।
जीवन की बगिया पुष्पित थी, खिला हुआ प्रिय घर आंगन था।
ऐसा लगता था मदमांता, शुभमय मधुमय नित सावन था।।
मस्ती में हम झूमा करते, सहज गले से लग जाते थे।
एक दूसरे को हम छू कर, हो विलीन तब पग जाते थे।।
बहुत सुहाने दिन मनभावन, नहीं लौट कर अब आएंगे।
ऐसा स्नेहिल प्रेमिल मधुरिम, नहीं कभी भी अब पाएंगे।।
था बसंत जीवन का प्यारा, यादों में यह गुम्फित दिखता।
था अतीत सुखदायक मोहक, वर्तमान में कविता लिखता।।
146….. मोहिनी
रूप मोहिनी दिव्य रूपसी, अतिशय प्यारी सुंदर नारी।
सहज लुभाती है लोगों को, जीवन उपवन की यह प्यारी।।
ब्रह्मा जी की यह रचना है, बड़े प्रेम से गढ़ी गई हैं।
दुनिया करती इसका पूजन, धर्म ग्रंथ सी पढ़ी गई है।।
इसको पाता भाग्यमान ही, प्रिया पार्वती शंकर की है।
यह लक्ष्मी है नारायण की, राधा कृष्ण मयंकर की है।।
अति मधु चपला बहुत सुहावन, सदा सरस रस बनकर बहती।
मौनव्रती मादक मस्ती में, शांत रसिक बन सब कुछ कहती।।
गज गामिन सी चलाती रहती, प्रेम सुधा वह बरसाती है।
जो कुपात्र इस धरा धाम पर, नित उनको यह तरसाती है।।
बहुत जटिल है परम सरल है,सत्पात्रों को उर में रखती।
करती रहती प्यार निरंतर, अंतःपुर में सतत मचलती।।
मोहित होती विद्वानों पर, जिनके भीतर कपट नहीं है।
छल छद्मों से नफरत करती, कभी स्वार्थ की लपट नहीं है।।
है चरित्र जिसका अति पावन, उसपर सदा लुभाती है वह।
जो विनम्र शालीन सनातन, दिल में उसे सजाती हैं वह।।
147…. उपासना
सदा रहे सुभद्र भाव आस पास बैठिए।
लिखा करो सुगीत ग्रंथ पाठ नित्य कीजिए।
करस्थ लेखनी चले प्रवाह हो विचार में।
सदेह भावना बहे सुमंत्र स्तुत्य बोलिए।
मनुष्य हो सुदूर देख आत्म भाव पाइए।
नहीं कभी दुराव हो अमर्त्य देश आइए।
अभद्रता असह्य हो अशिष्टता करो नही।
पढ़ो सदैव नम्रता विनम्रता जगाइए।
148…. चांदनी रात
मिला करे सदैव रात्रि चांदनी सुहागिनी।
खिला करे वसुंधरा प्रशांत प्रीति गामिनी।
सदा रहे सुघर मधुर सुवासयुक्त कामिनी।
करो सहर्ष कामना दिखे प्रसन्न यामिनी।
डकैत और चोर का विलोम रात चांदनी।
सुशांत भाव दिव्यता प्रफुल्ल भव्य चांदनी।
दिवा सदैव है बनी प्रकाश रूप चांदनी।
युवा सशक्त निर्विकार दिव्य काम्य चांदनी।
सुमोहिनी सुगंधिनी सुपुष्टिनी सुभागिनी।
प्रभावयुक्त प्रेमयुक्त ज्ञान द्रव्य दायिनी।
सजी धजी चमक बिखेरती कुलीन भामिनी।
सुहाग रात प्रेमिका सुसुष्ठ सौम्य चांदनी।
149…. शिक्षा (वीर रस)
भरी पड़ी शिक्षा से जगती, भरे पड़े हैं तीनों लोक।
सकल सृष्टि यह विद्यालय है, यहां शोक है और अशोक।
कण कण देता ज्ञान यहां पर, लेनेवाला हो जिज्ञासु।
सबके आगे सरिता बहती, पीता रहता सहज पिपासु।
चारोंतरफ ज्ञान की धारा, इच्छा हो तो पीना सीख।
इसमें जीवन की मस्ती है, बुद्धिमान बन करके दीख।
बुद्धिमान है वह मानव जो, करता रहता है अभ्यास।
पार्थ बना वह वाण चलाता, एक विंदु का बस अहसास।
लक्ष्य देखता एक मात्र बस, और कहीं भी जाय न दृष्टि।
जीवन का संग्राम जीतता, सतत सफलता की शुभ वृष्टि।
जड़ चेतन सब ज्ञान सिखाते, देते रहते हैं सद्ज्ञान।
बड़े प्रेम से हाथ जोड़ते, नतमस्तक हो देते दान।
श्रद्धा अरु विश्वास जहां है, वहीं सीख का उत्तम गेह।
जगत गुरू भारत की माटी, कण कण करता सबसे नेह।
एक दूसरे से सब चिपके, आकर्षण की शिक्षा देत।
सहयोगी भावना जगाते, बदले में कुछ कभी न लेत।
फल देते फलदार वृक्ष हैं, जीवों से करते हैं प्यार।
शीतल छाया बने चहकते, कभी नहीं करते व्यापार।
मानवता का पाठ पढ़ाते, इनको सच्चा गुरुवर जान।
लहराती नदियों की धारा, बिना शुल्क देती जलदान।
देख परिंदों को मुस्काओ, जब भरते ये गगन उड़ान।
मस्तानी है अदा निराली, जीवन शिक्षण का अभियान।
हर घटना से सीखो प्यारे, सब में भरी हुई है सीख।
ज्ञान लोक तुम बैठे हो, बिन मांगे पाते हो भीख।
नहीं इमारत विद्यालय है, यह चेतन संस्कृति का द्वार।
सबसे सीखो सबको जानो, सभी जगह गुरु का दरबार।
घृणा द्वेष नफरत से ऊपर, उठकर देखो ज्ञान अथाह।
प्रेम समर्पण त्याग तपस्या, सुंदर मानव की हो चाह।
तुम विनम्र समदर्शी बनना, पारदर्शिता की हो राह।
श्वेत पत्र लिख नैतिकता का, हस्ताक्षर हो कभी न स्याह।
सहज चमकता सूरज बनना, देते रहना ज्ञान प्रकाश।
सीखो और सिखाओ सबको, इक दिन छूना दिव्याकाश।
शिक्षा का यह मर्म सनातन, मुनि महर्षि की वाणी जान।
आत्मोन्नयन करो खुद अपना, वीणापाणी का यशगान।
150…. स्वर्णमुखी छंद (सानेट)
तेरी सूरत जब से देखा।
पा लेने की होती चाहत।
बिन पाए मन होता आहत।
तुम हो मोहक मादक रेखा।
बस जाओ नैनों में आ कर।
तुम्हें निहारा करें चूमते।
रहना मन में सदा घूमते।
बात करें तुझको बैठा कर।
अंग अंग में उमड़ घुमड़ कर।
देखें यौवन की अंगड़ाई।
मनोरोग की यही दवाई।
तन मन दिल में नित्य भ्रमण कर।
रात चांदनी बन कर आना।
उर को मधु मद से नहलाना।।
151…. सहयात्री (राधेश्यामी छंद)
यात्रा होती बहुत सुहानी, जब सहयात्री हो मनभावन।
मंजिल बहुत निकट लगती है, दूरी लगती दिव्य सुहावन ।
मन के लायक साथी संगी, लगते उत्तम दिव्यानंदी।
प्रेमपूर्ण बातें करते हैं,जैसे शिवशंकर का नंदी।
पुष्प बरसता रहता पथ पर, मन में सुख हरियाली छाये।
है सुकाल यह जीवन भर का, खुशदिल तन वन नित हर्षाये।
जीवन का यह स्वर्णिम अवसर, आता प्रिय स्वागत करता है।
निर्भय यात्री हमराही बन, कदम मिलाकर नित चलता है।
यौवन की यह सहज वापसी, अंतस में सद्भाव सुहाना।
सुंदरता दिखती चहुंओरा, चार धाम का ताना बाना।
तरह तरह की बातें कह सुन, भ्रमण मस्त अतिशय लगता है।
अंग अंग रोमांचित होता, उत्साहित रग रग जगता है।
पग बढ़ता है सदा वेगवत, कटती रहती राह निरंतर।
दूरी लगती सहज निरर्थक, होता खत्म देर का अंतर।
यह जीवन पथ परम सरल है, नित्य सुगम अति प्रिय मतवाला।
यदि सहयात्री तरल धवल हो, निर्मल पावन मृदुमय प्याला।
152….. बाल दिवस
(मनहरण घनक्षरी)
बाल रूप दिव्य रूप,
भव्य नव्य सौम्य भूप,
पारिजात पुष्प जान,
बाल को सराहिये।
स्नेह देह श्रेय गेय,
शोभनीय सत्य प्रेय,
प्रेमपूर्ण बात चीत,
देख शांति पाइये।
चाल ढाल द्वंद्वमुक्त,
बोल चाल हर्षयुक्त,
संपदा विशाल अस्ति,
बाल को बसाइये।
खेल कूद मस्त व्यस्त,
बाप मात प्यार हस्त,
जिंदगी सुहान मान,
बाल को मनाइये।
लाभ हानि देश पार,
लोक से अपार प्यार,
हंस वृत्ति साफ पाक,
बाल गीत गाइये।
बाल मीत संग जाग,
देखना प्रसन्न राग,
छद्म से परे सदैव,
देखते लुभायिये।
बाल में समाज देख,
है वही असीम रेख,
हो मनोविनोद नित्य
बाल सुख पाइये।
153….. बरवै छंद
जब से मैंने देखा, मधुर कमाल।
मन मस्त हुआ तब से, मालामाल।।
रूप सलोना मोहक, मन हर्षाय।
छवि अति कोमल भव्या, बहुत लुभाय।
तेरे नयन सितारों, में है प्यार।
पावन वदन छवीला, सुखद बहार।
मस्त मनोहर रूपक, प्रिय उपमान।
कविता छंद ललित लय, गेय विधान।
प्रिय हर लेता दिल को, वह अनमोल।
गूंजत ध्वनि अंतस में, मादक बोल।
मत छोड़ कहीं जाना, हे रस खान।
अविरल तेरा होगा, अति सम्मान।
154. …गगनांगना छंद
16/9
भाव बहुत गंभीर निराला,चमकता तारा।
प्रेम प्रधान सहज सुखदाता, अधिकतम प्यारा।
देख देख मन हर्षित होता, बड़ा मनमोहक।
आंखों में बसा हुआ कब से, हृदय का पोषक।
प्रेमिल ऊर्जा का स्रोत बना, सदा शीतल सा।
दिल में आ कर सदा गमकता, बना गंधी सा।
जब से जीवन में आया है, अजनबी न्यारा।
आकाश उतर आया तब से, मिला जग सारा।
सब कुछ तुमसे ही मेरा है, न टूटे आशा।
यह जीव अलौकिक आज बना, शुभद परिभाषा।
155….. मनहरण घनाक्षरी
शोभनीय है मनुज,
जो बहुत सशक्त है,
किंतु सह रहा सदा,
दानवीर कर्ण सा।
भावना का सिंधु वह,
शिव स्वरूप त्याग है,
छेड़ता नहीं किसी को,
श्वेत सभ्य वर्ण सा।
भोग से विरक्त धीर,
लोभ मुक्त शांत हीर,
है महा क्षमा सुशील,
प्रीति रीति गीतिका।
सौम्य नम्र ध्येय ध्यान,
प्रेममग्न ज्ञानवान,
शीत मूर्ति हंस शान,
स्नेहपूर्ण नीतिका।
शिष्ट राग गेय काव्य,
संत छंद भव्य राज्य,
शब्द मोहनीय नव्य,
ग्रंथ राम क्षम्यता।
अंग अंग जोश प्राण,
मानवीय मूल्य बाण,
धर्मरत रथी स्वयं,
क्षमा दान सभ्यता।
156…. अनुपम छवि (राधेश्यामी छंद)
देख देख कर मन मयूर यह, हर पल नृत्य किया करता है।
लगता जैसे हरदम सावन, रिमझिम रिमझिम जल गिरता है।
बूंद बूंद गिरता जब सिर पर, अंग अंग में रस भरता है।
मंद मंद मुस्कान विखेरत, गगन चूमता उर चलता है।
दृश्य सुहाना अति मस्ताना, अनुपम छटा निराली है।
लगता जैसे किसी रूपसी, की मस्ती की प्याली है।
दिल में धड़कन फिर भी मोहक, मधु मधुरिम चाल छबीली है।
दिव्य अलौकिक पावन प्रतिमा, प्रकृति निराली अति नीली है।
मोहित तन मन चाह रहा है, परी उतर कर आंगन आए।
बहलाए फुसलाए दिल को, घर द्वारे यह हरदम छाए।
प्रणय गीत का हो आयोजन, घोर घने जंगल में मंगल।
भागे जीवन का अंधियारा, शुक्ल रूप का जय जयमंगल।
157…. किरीट सवैया
देखत देखत मस्त हुआ मन, मौन खड़ा दिल को समझावत।
छोड़ चलो सब राज दुआर, रहो बस कानन प्यार सजावत।
बोल नहीं मत डोल कभी, रहना उर अंतस प्रीति जगावत।
सोच नही बस नेह रखो, अब डूब समुद्र सुधा रस चाखत।
द्वार खड़े रहना लिखना, अति मोहक गीत कवित्त सुनावत।
पाठक हो पढ़ते रहते, चलना सबका दिल आंगन छावत।
नेति कहा करते बढ़ना , क्रमशः सबको मधुसार पिलावत।
ब्रह्म सहोदर प्रेम सदैव, चले नयना रस पी सुख पावत।
158…. कलम का जादू
प्रिय दृश्य मनोहर, दिव्य धरोहर, चिंतन का आधार।
मन शीघ्र मचलता, भाव उमड़ता, उठता सुखद विचार।
दिल पागल होता, कभी न सोता, लिखना चाहे लेख।
दीवाना हो कर, लेखक बन कर, खींचे मोहक रेख।
चुन चुन कर खोजे, शब्द सरोजे, कर में कलम नचाय।
जादू चलता है, उर खिलता है, चमके मंजर आय।
कहती कवि वाणी, सुनते प्राणी, सब पढ़ते मुंह बाय।
जादूगर चिंतक, सुंदर शोधक, दिखता शीश झुकाय।
प्रिय कलमकार का,यह कमाल है, चूमत है आकाश।
चहुंओर विचरता, यात्रा करता, जग को देत प्रकाश।
नित सकल धरा पर, नीचे ऊपर, जंगल मंगल होत।
नभ से पाताली, रस की प्याली, सृष्टि समूची स्रोत।
हर कलम सिपाही, पावन राही, दिखलाता है खेल।
ट्रैफिक इंस्पेक्टर, सतत हमसफर, फिर भी स्वयं अकेल।
झोली में ले कर, घूम घूम कर, भिन्न भिन्न में मेल।
छा जाता जग में, घुंघरू पग में, लेता सब कुछ झेल ।
नर से नारायण, कर पारायण, लिख पढ़ कर सब देत।
कुछ नहीं मांगता, उत्तम दाता, सिर्फ हृदय को लेत।
जगती को रचता, निर्मल करता, उपजाऊ हर खेत।
शिव साधु बनाता, सबसे नाता, भूत भगाता प्रेत।
159…. स्वर्णमुखी छंद (सामेट)
नित कलम चलाओ।
मन में हो चिंतन।
भावों का कीर्तन।
प्रिय शब्द सजाओ।
रच पावन पुस्तक।
अति मधुर भाव हो।
नित शुचिर चाव हो
जग हो नतमस्तक।
यह जगती झूमे।
मस्ती में पाठक।
नाचे बन गायक।
धरती पर घूमे।
स्वर्गिक परिवर्तन।
जागें मनमोहन।।
160… सजावट
जहां प्रिय का ठिकाना है, मुझे उसको सजाना है।
जहां संवाद मधुरिम है, वहीं खुद को बसाना है।
जहां प्यारा हृदय रहता, वहीं लगता सुहाना है।
बजे वंशी मुरारी की, उसी घट नित्य जाना है।
सजावट हो सदा मन की, बनावट से बचा करना।
संभालो आप को हरदम, हमेशा त्यागरत रहना ।
कभी मत भोग लत पालो, नहीं इच्छा बहुत रखना ।
मिले जितना सहज जानो, सरल मृदु नीर बन बहना।
161…. पथिक
पथिक चला उमंग में, उजास को विखेरता।
सदा बना सुधीर वीर, स्नेह को उकेरता।
नहीं कभी उदास भाव, शांति गीत टेरता।
अनीति को उखाड़ फेंक, नीति माल फेरता।
पतंग ले उड़ा रहा, स्वतंत्रता जगा रहा।
निडर सहर्ष दौड़ता, तिमिर सदा भगा रहा।
नियम बना स्वयं चले, सुपंथ नित्य जा रहा।
नहीं मलाल है कहीं, भले सुधी ठगा रहा।
162…. मां सरस्वती
सदा रहा करो हृदय सुहागिनी सरस्वती।
तुम्हीं अनन्य वंदनीय मातृ श्री सरस्वती।
अजेय ज्ञान राशि देवि प्रेमिला सरस्वती।
कमल सरोजिनी सहस्र स्नेहिला सरस्वती।
अनंत चार धाम स्तुत्य पूजनीय शारदे।
अनादि दिव्यमान ध्यान शान भव्य शारदे।
सुगंधिनी सुवासिनी मधुर सुशिष्ट शारदे।
चमक दमक प्रसन्नना महर्षि बोध शारदे।
सदैव वर्णनीय आन बान मान शारदे।
धरोहरी सनातनी सुजान भान शारदे।
लिए करस्थ ग्रंथ बीन मातृ भक्त तार दे।
तिमिर रहे नहीं कभी प्रकाश बन सुधार दे।
सदैव मातृ चन्दना असीम हंसवाहिनीं।
सुगामिनी सुभाषिणी अजीत देह दामिनी।
परंतु किंतु से विमुक्त श्वेत सत्व कारिणी।
परी बनी विचर रही सदेह लोकतारिणी।
163…. ववंदे वंदे मातृ शारदे
मापनी 24/23, अंत गुरु
महाबला महाभुजा महामना सरस्वती, शांतचित्त प्रेमयुक्त ज्ञान दान देवता।
रमा परा महांकुशा शिवा त्रिकाल रूपसी, सत्य सौम्य ब्रह्म विष्णु आत्म रूप स्नेहता।
विशाल नेत्र प्रेमदा सुधर्म पुंज नायिका, हंस आसना सदैव नीलजंघ चंडिका।
सुवासिनी सुभद्र शान ध्यानमग्न चिंतिका, वैष्णवी निरंजना सदा सुशील अंबिका।
महाशया महोदया प्रकाशमान आनना, दिव्य अंग पूजिता वरप्रदा सुचंदना।
रहें सभी विनम्र भाव से करें निवेदना, भारती महान की करो अपार वंदना।
164…. पर्यावरण संरक्षण
(मनहरण घनाक्षरी)
तुम प्रकृति बचाओ, सतत सेज सजाओ, नियमित चमकाओ, गंदा मत करना।
नित प्रेम किया कर, रह तुम बच कर, ध्रुव प्रिय बन कर , साफ स्वच्छ रखना।
अनमोल प्रकृति है, स्वयंभू संस्कृति यह, लक्ष्य प्यार करना है, प्रेमवत रचना।
हिंसक मत बनना, साधन बन चलना, तुम साध्य स्वयं मत, अपने को कहना।
पर्यावरण सुरक्षा, हो यह मन की इच्छा, तुम दूषित कारण, कभी मत बनना।
है सर्वोपरि सुंदर,नहीं कभीअसुंदर, इसकी सेवा करना, नित आगे बढ़ना।
165…. संविधान
संविधान कानून देश का, इसकी रक्षा करना धर्म।
इसे राष्ट्र का हृदय समझना, यह करता हितकारी कर्म।
राज्य राष्ट्र अथवा संस्था का, यह करता संगठित विकास।
लोक तंत्र का महा मंत्र यह, इसको मानो उत्तम न्यास।
नियमों की यह स्वस्थ व्यवस्था, इससे चलता रहता देश।
जीवन को आसान बनाता, नियमित जीवन का संदेश।
हैं समाज यह जंगल जैसा, अगर संगठन नियम विहीन।
सही गलत को निश्चित करता,संविधान का मोहक बीन।
विघटन दिखता है चौतरफा, जब नियमों का हो अपमान।
अनुशासन गिरता धड़ाम से, भैंसे देते अपना ज्ञान।
मांसपेशियों का जलवा हो, संविधान यदि खाये मार।
पूजनीय होता वनमानुष, जो करता है अत्याचार।
सत्य हमेशा धूल धूसरित, झूठ दहाड़े सीना तान।
इसीलिए कहता हूं सबसे, संविधान का हो सम्मान।
नैतिकता मानवता हंसती, जगता अनुकूलन का भाव।
स्वस्थ स्वच्छ मानव समाज ही, संविधान का अमिट प्रभाव।
166…. प्रीति जगाओ (राधेश्यामी छंद)
आना जाना विधि विधान है, इसको कौन बदल सकता है।
इस जीवन में सब कुछ निश्चित, समय चक्र घूमा करता है।
मिलन वियोग विरह सुख दुख सब, समय समय पर घटते रहते।
मिल जाने पर मन हंसता है, खो जाने पर रो कर सहते।
बहु रंगों का एक मंच है, भांति भांति से मंचन होता।
एक एक किरदार यहां पर, कोई हंसता कोई रोता।
शांति द्वंद्व सहयोग द्वेष नित, रूप दिखाते सब चलते हैं।
हाथ मिला कर कुछ चलते हैं, आंख दिखाते कुछ चलते हैं।
अजब गजब सी इस जगती को, सीखो जीना और जिलाना।
सुख की गंगा बन कर बहना, नीर बांटते हरदम जाना।
जीवन की दुनिया को देखो, दुख का सागर भ्रमण कर रहा।
प्रीति जगा कर इसे सोख लो, सुखद सिंधु प्रिय रमन कर रहा।
167…. मन की आवाज
मन जब तक मैला, बहुत विषैला, करता गंदा काम।
अति कामवासना, देह कामना, कभी नहीं विश्राम।
मन हरदम चाहत, धन में राहत, सदा लोक की प्यास।
आजीवन भटकत, भद्दी हरकत, नित्य भोग की आस।
जो मन को साधे, कान्हा राधे, करता सबसे प्यार।
निर्मल बन जाता, हरि गुण गाता, उत्तम भाव विचार।
नित आत्म प्रकाशित, सहज सुवासित, करता दिव्य प्रचार।
मधु अमृत रसना, मोहक वचना, अत्युत्तम किरदार।
प्रिय पावन मन से, सदा निकलती, परहित की आवाज।
अति मीठी बोली, रच कर टोली, करती दिल पर राज।
वह शांत पथिक सा, चलता रहता, करता सबका काज।
सबको खुश करता, जग दुख हरता, सत्य शुद्ध रसराज।
168…. मनहरण घनाक्षरी
राम श्याम हंस वंश,ब्रह्मवाद शुद्ध अंश,
लोभ मोह दर्प त्याग, स्पष्ट शब्द बोलिए।
नाप तौल बोल डोल, स्वर्ग द्वार खोल पोल,
अर्थवान भाव द्रव्य, सत्य पंथ खोलिए।
लोक तंत्र मंत्र भव्य, आचरण विशुद्धता,
हार जीत साम्यवाद, सौम्य मग्न होइए।
द्वंद्व फंद मार डार, धर्म चक्र नीतिकार,
शालिनी सुसभ्य प्रीति, तुच्छ भाव खोइए।
169…. जीवन (आल्हा शैली)
इसीलिए मिलता है जीवन, करते रहना सुंदर कर्म।
कभी असुन्दर का मत चिंतन, करते जाना पावन धर्म।
भीतर बाहर से पवित्र हो, सबको गले लगाओ यार।
बन जाओ दिलदार मुसाफिर, मन से करना सबसे प्यार।
हाथ जोड़ कर शीश नवा कर, उर से हो सबका सत्कार।
नहीं किसी को निम्न समझना, यही स्वयं में शुद्ध विचार।
भावों में संसार बसे जब, दौड़े आता शिष्टाचार।
दिव्य आचरण नतमस्तक हो, करे सभी से सत्याचार।
सच्चाई की राह सुहानी, ढह जाता है मिथ्याचार।
झूठ मुठ के पैर टूटते, धनुष बाण जब ले अवतार।
राम बने वनवासी जग में, करते रहे असुर संहार।
जगती जब लगती मायावी, अच्छे का लगता दरबार।
मनमोहन आते अंतस में, सबका होता शुचिर सुधार।
स्वर्ग विचरता है भूतल पर, होता दिखता सुख संचार।
पाप भागता पुण्य थिरकता, संतों का बनता घर द्वार।
नहिं विवाद का मेला सजता, सहज शांति रस ले आकार।
मेल परस्पर बढ़ जाता है, होता खुशियों का व्यापार।
सहयोगी प्रवृत्ति जग जाती, सदा विरोधी खाते मार।
ईश्वर ने भेजा है सबको, सबका करने को उपकार।
संघर्षों को काट निरंतर, श्रम का लेकर नित तलवार।
उत्तम शिक्षा है जीवन की, अंतर्मन में हो सुविचार।
सुंदरता आए मानस में, सकल महीं से मिटे विकार।
बने नेह का मेह गगन में, हो प्रसन्न सारा संसार ।
170…. जीवन साथी
जीवन साथी यदि अनुकूल, धन्य धन्य जीवन विस्तार।
मिलता स्वर्गिक सुख आनंद,मन में रहती खुशी अपार।
भाव संपदा घर में देख, लक्ष्मी नारायण साकार।
सारे संकट होते दूर, मोहक लगता हर व्यवहार।
हंसी खुशी का प्रिय माहौल, आ कर रहता सदा बहार।
मिट जाते हैं सभी अभाव, बहती मोहक गंध बयार।
पुण्य धाम बन जाता गेह, सीताराम होय साकार।
जीवन साथी का यह मेल, अद्वितीय अनुपम आकार।
सदा हाथ में डाले हाथ, दिखता अतिशय अमृत प्यार।
जीवन साथी दिव्य प्रसाद, ईश्वरीय वरदान प्रकार।
समझो यह किस्मत की बात, साथी जीवन का है सार।
जीवन साथी यदि प्रतिकूल, हो जाता है बंटाधार।
171…. प्रीतिसंगिनी
(अमृत ध्वनि छंद)
अति सुकुमारी प्रेमवत, अनुपम मधु मुस्कान।
रहती हरदम साथ में, देती रहती ध्यान।।
सुंदर कोमल, अति प्रिय निर्मल, भावुक सरला।
पावन गंगा, रखती चंगा, अति तरला।।
प्रीतिसंगागिनी प्रेयसी, रूपवती मदमस्त।
साथ निभाती हर समय, सदा स्नेह में व्यस्त।।
प्रीति परस्पर, सहज निरंतर, अति सुखकारी।
शुभ संवादी, सीधी सादी, सतयुग नारी।
बोलत मधुरिम बोल है, नहीं कपट नहिं छद्म।
ऐसी संगति भाग्यवश, लगती मोहक पद्म।।
चाल मनोहर, गाती सोहर, जागृत महफिल।
क्रोध रहित है, शांत पथिक सम, नित शुद्ध निखिल।।
172…. ममता (सरसी छंद)
मां की ममता सर्वोपरि है, यही दिव्य है स्नेह।
जिसमें ऐसा भाव मनोरम, वह मां का मन देह।
मां सचमुच में प्रभु की मूरत, धरती का भगवान।
उसके अपनेपन के आगे, झुकता सच्चा ज्ञान।
दुनिया को जो निजी समझता, रखता मधुरिम भाव।
विश्व हितैषी बना विचरता, सबके प्रति सद्भाव।
मां आत्मा है वह मंदिर है, प्रेमिल कर्म अनंत।
कण कण में वह अनुपम चेतन, ज्ञान चक्षुमय संत।
मां आदर्श भावमय ममता, व्यापक अर्थ महान।
मातृ हृदय कोमल अति भोला, रत्न अलौकिक खान।
मां का उर्मिल रूप संजो कर, बनो शक्ति का पुंज।
राधा बन कर नित्य थिरकना, वृंदावन के कुंज।
ममता में समता को देखो, सबको गले लगाय।
चलते जाना धर्म पथिक बन, यह है मधुर उपाय।
रबर बने नित बढ़ते जाना, लो असीम आकार।
माता की ममता को चूमो, कर आत्मिक विस्तार।
173…. नमामि मातृ शारदे!
(पंचचामर छंद)
लता सदा सुगंधिता विनम्रता अनंतता,
सुपात्रता सुशीलता नमामि मातृ शारदे!
सुहाग नव्य भव्यता प्रशांत शांत चित्तता,
सनातनी धरोहरी प्रण्म्य मातृ शारदे!
लिये सुग्रंथ साथ में लिखंती लेख लेखिका,
बहंति मालिनी बनी नमामि मातृ शारदे!
सदैव हंसवाहिनीं विवेकिनी सुधा प्रिया,
सुचिंतना शुभा शिवा भजामि मातृ शारदे!
रमा रमेश व्यापिनी सुबुद्ध शुद्ध सात्विकी,
स्वयं सुज्ञान दायिनी नमामि मातृ शारदे!
सुवोधिनी सहर्षिणी सुगम्य शोध साधिका,
अगम्य निर्गुणी निरा नमामि मातृ शारदे!
निराश की सहस्र आस प्यास को बुझा रही,
अनाथ की कृपालु मातृ वंदनीय शारदे!
अबोलती प्रचंड वेग मौन मूकदर्शनी,
असीम रूप धारिणी नमामि मातृ शारदे?
दिया करो विनीत प्रेम प्रीति स्नेह दिव्यता,
अखण्ड ज्योति स्वामिनी नमामि मातृ शारदे!
अमर्त्य देव भूमि की विराट शक्तिशालिनी,
मनोहरी विलासिनी सुसाध्य मातृ शारदे!
स्वरूप सुष्ठ सौम्य शिष्ट सभ्य शुभ्र शानिनी,
पयोधरी यशोधरी नमामि मातृ शारदे!
स्वतंत्र शब्द भाव रूप अर्थयुक्त अप्सरा,
सुलक्षणा सुलोचना सुमान नाम शारदे!
सुदर्शना सुवंदना सुगीतिका सुनंदना,
अजानबाहु वर्णिका नमामि मातृ शारदे!
174…. सफलता
वही फूलता अरु फलता है, जिसके मन में दृढ़ विश्वास।
करता रहता कर्म निरंतर, अटल अचल प्रिय मौलिक आस।
एक लक्ष्य पर केंद्रित रहता, एक पंथ धर चलता दूर।
कभी नहीं विचलित होता है, मेहनत करता नित भरपूर।
थकने का वह नाम न लेता, सुंदर साधन ही आधार।
बढ़ता जाता कभी न रुकता, दिल में रखता शुद्ध विचार।
बाधाओं से लड़ता रहता, धीरज रखता बन बलवान।
अंतर्मन में जोश भरा है, खड़ा अडिग अतुलित इंसान।
वीर बहादुर सा दिखता है, रण क्षेत्र को करता ढेर।
लगातार वह कोशिश करता, लेत परिस्थिति को वह घेर।
सबको वह अनुकूल बनाता, नहीं मानता है वह हार।
विजय तिरंगा हाथ लिये वह, भरता रहता है हुंकार।
यही सफलता की कुंजी है, पावन कृत्य सहज फलदार।
कर्मवीर श्रम साधक पंथी, की फलदायी अमृत धार।
175…. प्रीति
प्रीति भावना अमोल रागिनी तरंगिनी।
सत्व रूपिणी सदा रहे सदेह संगिनी।
मस्त मस्त चाल में चले बनी सुगंगिनी।
हाव भाव भंगिमा सतत मलय सुचंदिनी।
सद्गुणी सुसज्जना नितांत शांत सांत्वना।
जाति पांति से अलग थलग विशुद्ध पावना।
मोहिनी चमक दमक सुशील सौम्य कामना।
धारणीय कामिनी उरस्थ नेह भावना।
प्रेमिका बनी निहारती सदैव सत्य को।
अंक में अपार शक्ति मारती असत्य को।
द्वेष को नकारती कवित्त को उकेरती। काव्य रूप भामिनी धरा प्रिया सहेजती।
176…. सरस्वती वंदना
(पचचामर छंद)
जहां कही चलो मुझे सहर्ष साथ ले चलो।
पकड़ सदैव हाथ को स्व धाम नित्य ले चलो।
नहीं अकेल छोड़ कर अदृश्य में न भागना।
यहीं असीम कामना करूं अनंत साधना।
मना नहीं किया करो रखो मुझे सुसंग में।
रमा करो सदेह मातृ प्रेम ज्ञान रंग में।
तुम्हें पुकार कह रहा सुनो सुबोधिनी सदा।
चलो बनी सुशिक्षिका सुयोग योगिनी सदा।
पढूं लिखूं बनूं सुजान भक्ति दान दीजिए।
प्रकाश रूप में बहो विनीतवान कीजिए।
पवित्र निर्मला जला बनी थकान मेट दो।
नदी बनी सुगंगिनी शिवा तरान भेंट दो।
हरा भरा रहे हृदय स्व नाम धन्य भारती।
शुभेच्छु मातृ शारदे! सदैव बुद्धि आरती।
विमान हंस सद्विवेक नीर क्षीर भिन्न हैं।
समस्त सृष्टि लोक में, अनाम मां अभिन्न हैं।
177…. विनती (सरसी छंद)
सकल जगत से विनती करता, जागे अमृत भाव।
शक्ति प्रदर्शन का हो मतलब, सब मिल धोएं घाव।
अंतर्मन में स्नेह वृष्टि हो, होय हृदय से मेल।
जन सहयोगी मन विकसित हो, जग हिट में हो खेल।
हो विचार में सदा बड़प्पन, उत्तम धन स्वीकार।
श्रम से संग्रह सीखे मानव, फैले यही विचार।
आग्रह और निवेदन सबसे, सभी करें प्रिय कर्म।
शोषणकारी वृत्ति त्याग कर, मन से हो शुभ धर्म।
जाति पांति का भेद भुलाकर, सभी करें कल्याण।
साफ स्वच्छ अंतस से निकले, सहज प्रीति का बाण।
सकल परयापन मिट जाए, जग अपना बन जाय।
जीवन सबका धन्य बने अब, पाप त्वरित मिट जाय।
अनुनय विनय यही बस प्रियवर, रखना सबका मान।
ऐसे ही रहना आजीवन, हो प्रेमिल मुस्कान।
मिन्नत है बस यही एक प्रिय, करें काम सब नेक।
बहु संख्यक संसार लिखे मधु, मोहक ग्रंथ अनेक।
178…. गंदे लोगों की जमात
गंदे लोगों की जमात में, पीसे जाते अच्छे मानव।
दिखते आज चतुर्दिक बन ठन, दूषित असहज कुंठित दानव।
भोले भाले सुंदर सज्जन, को सब मिल कर लूट रहे।
सब फिराक में रहते हरदम, फांस फांस कर फूट रहे।
गलत तरीके से धन संग्रह, का चक्कर सब काट रहे हैं।
धोखेबाज उचक्के चोरकट, जन मानस को चाट रहे हैं।
सड़ियल कुत्ता बने घूमते, चारोंतरफ निरंकुश देखा।
बने अनैतिक नीच अपावन, लांघ रहे हैं सीमा रेखा।
“ब्लैक मेल ” करने को आतुर, उत्सुक व्याकुल आज घिनौना।
धर्म कर्म से विचलित कायर, नित फौरेबी कुत्सित बौना।
मर्यादा से बहुत दूर ये, नहीं प्रतिष्ठा से नाता है।
नित कुकृत्य को करनेवाला, कब सम्मानित हो पाता है।
रग रग में है सिर्फ वासना, धोखाघड़ी किया करता है।
सदा विरोधी नैतिकता का, आत्मघात करता रहता है।
179…. प्रेयसी
प्रेयसी सदा प्रसन्नचित्त भावनिष्ठ हो।
मनोरमा सुदर्शनीय दिव्य प्रीतिनिष्ठ हो।।
काव्य की मनोहरी छटा बिखेरती रहे।
घनाक्षरी सुलेखिका लिखा करे बनी रहे।।
प्रेम रत्न खोज खोज देव दृष्टि जागरण।
उर्वशी बने सदैव नव्य प्रेम आचरण।।
देखती रहे विनम्र भाव में सजी धजी।
मंत्र मोहिनी बनी दिखे सदा अमर ध्वजी।।
एक बीज मंत्रिका सुहागिनी सुनामिनी।
प्रेम वृक्ष वाटिका सुहावनी लुभावनी।।
शोधिका सुबोधिका अनंत प्यार कामिनी।
बात चीत मस्त मस्त स्नेह रंग स्वामिनी।।
अमर्त्य लोकवासिनी अमी धरा बनी दिखे।
सदा सुखी कदम बढ़े चले सुभाग मन लिखे।।
प्रिया बनी अनंतिमा अनूपमा स्वरांगिनी।
कवित्त रूप मनहरण सुधा समुद्रवासिनी।।
मजी हुई सुगीतिका विहारिणी सुगंधिका।
रहे सदैव प्रेमिका सुलोचनीय राधिका।।
दिनानुदिन सुशांत रश्मि तेज पुंज भावना।
दिलेर चित्तचोरनी असीम राग कामना।।
180…. प्रीति रसामृत (सानेट)
प्रीति रसामृत हरदम टपकत।
अतिशय भावुक है प्यारा मन।
करता रहता स्नेह आचमन।
हृदय विशाल हमेशा चमकत।
चोर लुटेरा दिल व्यापक है।
जगती व्याकुल है पाने को।
राजी नहीं कभी जाने को।
नायक प्रियतम का मापक है।
आंखों में है मोहक तारा।
मस्तक पर है तेज विराजत।
अधरों की मुस्कान बुलावत।
चेहरा मनमोहक मधु प्यारा।
प्रेमिल मधुरिम मन मस्ताना।
मिलने को व्याकुल दीवाना।।
181…. गगन (पंचचामर छंद)
गगन अनंत अंतरिक्ष किंतु प्राप्य मान लो।
पहल सतत चला करे सुदूर दृष्टि तान लो।
अचंभ कुछ नहीं यहां वहां सभी समीप हैं।। सहज सभी खड़े पड़े लखो प्रसिद्ध द्वीप हैं।
क्षितिज निहार व्योम को प्रसन्नचित्त होत है।
असीम सीम दीर्घ सूक्ष्म ज्ञान ध्यान स्रोत है।
महान विज्ञ के लिए नहीं कठिन यहां कदा।
अदम्य बुद्धि ज्ञान से पहुंच रहा सदा सदा।
मनोबली महत्वपूर्ण काम कर दिखा रहा।
जुनून कर्म ज्वार का सप्रेम वह सिखा रहा।
प्रतिज्ञ बन चले सदा शनैः शनै: बढ़ा करे । चलो पकड़ अलभ्य को सुलभ्य पर चढ़ा करे।
गुलाब बन महक अनंत चूम कल्पना परे।
उड़ा करो सदा बहो स्वतंत्र रूप को धरे।
नियम यही बता रहा गिरा भले संभल गया।
गगन बना सुपंथकार ऊर्ध्व गंत बन गया।
182… . लेखनी
लेखनी उठे चले लिखे सदा प्रियंवदा।
शब्द अर्थ भाव लोच गेय गीत संपदा।
विघ्न हारिणी बने दिखे सदा सुखांतिका।
राग रागिनी निकल खिले जगत सुशांतिका।
एक एक अक्षरा सुमंत्र सिंधु कोश हो।
भावना बहे अनंत तंत्र इंदु तोष हो।
रात दिन दिखा करे सुनंदनीय चांदनी।
वृत्ति प्रेम वाहिनी हंसे सजी सुहागिनी।
द्वेष दैत्य चूर चूर स्नेह राशि पूर पूर।
दिव्य तंत्र नूर नूर क्लेश धन्य धूर घूर।
मान्यता सुबुद्घ की उलाहना कुबोल की।
कामना महान हो उपासना सुबोल की।
लेखनी उबल रही विडंबना कुरेदती।
वांछनीय सभ्यता सुसत्य को उकेरती।
हिंसवाद मारिका सुकाम्य रत्नधारिका।
पंच ईश्वरीय शक्ति नायिका सुधारिका।
183…. महफ़िल
आना जरूर आना, महफ़िल बुला रही है।
दो बूंद रस पिलाना, आवाज आ रही है।।
आना सजे धजे तुम, कुछ गीत गुनगुनाते।
मुस्कान ले अधर पर, वैदिक ऋचा सुनाते।
होगा यहां सुनर्तन, झूमे सभी मचल कर।
फरियाद होय पूरी, आकर्ष हो दिलों पर।
सबको दिखे सबेरा, सब प्रेम के बसेरा।
दिल से सभी कहें यह, बस प्रेम हो घनेरा।
मायापुरी रसीली, दैहिक बने सभी हैं।
नित झूठ के शिकारी, फौरेब में सभी हैं। सब क्षीण कर नियम को, उस्ताद बन रहे हैं।
सुख शांति त्याग अपना, आंसू बहा रहे हैं।
महफ़िल वही सुहानी, तप त्याग जो सिखाती।
स्नेहिल बड़ी दिवानी, गोष्ठी सुघर दिखाती।
आओ मनुज यहां पर, बन जा सुभग सुहाना।
सबसे मिलो सहज में, बन प्रीति का दिवाना।
184…. कलम (सानेट)
कलम चलेगी मन बहलेगा।
सोच सोच कर चिंतन होगा।
भावों का चिर मंथन होगा।
कागज पर प्रिय सुमन खिलेगा।
देवदूत सब नृत्य करेंगे।
चले लेखनी जब असुरों पर।
राक्षस मर जायेंगे डर कर।
लेखकगण सब क्लेश हारेंगे।
कलम सिपाही शक्तिमान है।
विकृतियों का वह है मारक।
सकल लोक का प्रिय उद्धारक।
वह जनसेवक कीर्तिमान है।
पावन निर्मल मन से लेखन।
विघटित मन का सहज विरेचन ।।
185…. वतन (दोहे)
जिसको प्रिय लगता वतन, वह मानव खुशहाल।
सबसे पाता प्यार है, चलता मोहक चाल।।
अपनेपन के भाव में, हरदम रहता मस्त।
नहीं किसी से वैर है, नहीं किसी से त्रस्त।।
मातृभूमि को नमन कर, पाता रहता चैन।
सदा स्वजन के मेल से, खुश रहता दिन रैन।।
भाग्यशालियोंं को सहज, नित स्वदेश से प्यार।
सबके प्रति कल्याण का, रखता सत्य विचार।।
बाहर अच्छा है नहीं, अंतस है अनमोल।
अंतर्मन के द्वार से, बोले मीठे बोल।।
रग राग में अति स्नेह है, वतनपरस्त महान।
पास पड़ोसी दिव्य जन, पर रखता है ध्यान।।
रक्षा करता वतन की, ले कर तीर कमान।
बनकर सैनिक वीर वह, रखे देश की शान।।
186…. किन्नर (दोहे)
देव लोक के हो तुम्हीं, कहलाते उप देव।
गायन विद्या में निपुण, देव तुल्य अतएव।।
अश्वमुखी किन्नर सरल, भाव रूप संगीत।
गाते रहते हर समय, भिन्न भिन्न प्रिय गीत।।
इनका वर्णन है लिखित, देखो पढ़ो पुराण।
गीत प्रीत मधु रीत के, ये सचमुच में प्राण।।
खुश रहते हैं देवगण, सुन कर मधुरिम बोल।
किन्नर की इस जाति का, मत पूछो कुछ मोल।।
संस्कृति के रक्षक यही, दिव्य लोक है धाम।
दिये इन्हें आशीष हैं, त्रेता युग के राम।।
इस भौतिक संसार में, पूजनीय ये लोग।
हिजड़ों की शिष्टोक्ति यह, किन्नर नामक योग।।
इनकी चलती है सदा, ये स्वतंत्र मनमस्त।
ढोल मजीरा साथ ले, रहते हर पल व्यस्त।।
187…. आंसू
आंसुओं से कहो गीत बन कर बहें ,
लेखनी से कहो गीत लिखती रहे,
धार आंसू की रुकने न पाए कभी,
गुनगुनाता रहूं गीति बनती रहे।
दर्द बन कर पसीना निकलता रहे,
चांदनी के लिए सूर्य ढलता रहे,
जिंदगी को समझना कभी मत बुरी,
नीर बहता रहे प्रीति गाती रहे।
लोक में देवताओं का शासन रहे,
कंठ में शारदा का शुभासन रहे,
मन का मालिन्य बह कर पिघल जायेगा,
दिल में अच्छे विचारों का सावन रहे।
संसार सागर में शुचिता रहे,
सबके मन में समादर समाहित रहे,
मत समझना किसी को पराया कभी,
अपनापन ही सहज अश्रु सिंचित रहे ।
दिव्य धारा सदा आंसुओं की बहे,
प्रेमदायक कहानी सदा प्रिय कहे,
जीवनी का यही एक मकसद सफल,
दुख सहे गैर का किंतु खुशदिल रहे।
188…. हिंदी की उपासना
हिंदी जिसकी अभिलाषा है।
उससे दुनिया को आशा है।।
बिन हिंदी दिल बहुत उदासा।
रह जाता मन प्यासा प्यासा।।
अति प्रिय मोहक मादक। उत्सव।
नित प्रयोगधर्मी शिव अभिनव।।
छंदों का संसार निराला।
अनुपम अद्वितीय नभ प्याला।।
नित्य नवल कविता की रचना।
हिंदी कहती मधुरिम बचना।।
सत शिव सुंदर इसके ग्राहक।
उत्तम मानव मन संवाहक।।
ब्रह्मा विष्णु महेश समाये।
सभी देवता इसमें छाये।।
लक्ष्मी सीता माता इसमें।
जगत सहोदर भ्राता इसमें।।
मीठी और सुरीली भाषा।
वैश्विक हित की यह परिभाषा।।
नये नये संधान सुशोभित।
इस पर सारी जगती लोभित।।
काम क्रोध को नित्य भगाती।
शिवशंकर को सहज सजाती।।
हिंदी में आदर्श लोक है।
जग जननीमय देवि कोख है।।
परम अहिंसा की रखवाली।
मानवता की नैतिक प्याली।।
हिंदी का सम्मान जहां है।
स्वाभिमान का ध्यान वहां है।।
जिसको लगती हिंदी प्यारी।
उसकी रचना सुरभित न्यारी।।
अश्लीलों की घोर विरोधी।
पुण्य फलामृत की उद्बोधी।।
इस भाषा में शिष्ट आचरण।
मानव मूल्ययुक्त व्याकरण।।
मधुर मनहरी इसकी मूरत।
दर्शनीय मधु पावन सूरत।।
इसका जो अभ्यास करेगा।
अति कोमल अहसास भरेगा।।
अति संतुष्ट बना विचरेगा।
भूख प्यास से नहीं मरेगा।।
बना फकीरा चला करेगा।
सदा कबीरा बना रहेगा।।
हो संतृप्त दिखेगा मानव।
सहज भगायेगा यह दानव।।
189…लक्ष्य (मरहठा छंद)
मानव बनने का,लक्ष्य सदा हो, यह अति सुंदर कर्म।
जो सबके हित में, चिंतन करता, वही निभाता धर्म।।
यदि साध्य बड़ा हो, अटल खड़ा हो करे सभी का ख्याल।
वह हो वितरागी ,जन अनुरागी, चले नीतिगत चाल।।
गंतव्य निराला, करे कमाला, रहे पथिक खुशहाल।
पग थिरकत हरदम, चलता दन दन, जाता जिमि ननिहाल।।
हो भाव मनोरम, प्रिय लोकोत्तम, शुचि सर्वोच्च विचार।
मिलता फल निश्चित, सहज सुनिश्चित, पहुंचे अपने द्वार।।
कुछ नहीं कठिन है, सब कुछ संभव, रहे अचूक निशान।
अपने में अर्जुन, की रखना है, एक अमिट पहचान।।
अभ्यास करोगे, सतत बढ़ोगे, चूमोगे आकाश।
तम छंटता जाए, कदम बढ़ाए, चमके परम प्रकाश।।
विश्वास अचल हो, स्वस्थ विमल हो, देखो पावन धाम।
जो चलता रहता, कभी न रुकता, वह मानव श्री राम।।
190…. सत्य की डगर
असत्य को लताड़ता सदा सुपंथ मर्म है।
उखड़ पुखड़ चले असत्य किंतु मूर्ख गर्म है।
सदा चले कुचाल पर कुचाल जड़ प्रधान है।
कुबोल बोलता कहे यही विशुद्ध ज्ञान है।
बड़ा बना रहा करे घमंड का शरीर है।
कुरीति को सकारता पतित बना कबीर है।
स्वयं बना क्षितिज कहे अनंत आसमान हूं।
दिनेश हूं महेश हूं वृहस्पती सुजान हूं।
नहीं कहे असत्य को असत्य झूठ मूठ है।
सुसत्य को कहे सदैव वृक्ष रेड़ ठूठ है।
नकारता सुयोग को कुयोग ही भला लगे।।
जगत कहे भले बुरा कुभाव दृष्टि ही जगे।
पथिक बना कुपंथ का कुपथ्य सेवनीय है।
प्रशंसनीय बन रहा परंतु निंदनीय है।।
191…. पैगाम (अमृत ध्वनि छंद)
अतिशय प्रिय पैगाम है, मनमोहक संदेश।
कवि आया है द्वार पर, धर योगी का वेश।।
जोगी बन कर, पीत रंग का, वस्त्र पहन कर।
थिरक थिरक कर, निज कवित्त का, प्याला भर कर।।
गायन करता प्रेम से, गढ़ गढ़ कहता बात।
लिये सरंगी हस्त में, नाच रहा दिन रात।।
नाचत गावत, प्रीति पिलावत, मोहित करता।
प्रणय सूत्र का, वर्णन कर कर, हृदय विचरता।।
देख रूप मधु भाव को, आकर्षित सब लोग।
कवि योगी के गान से, होते सभी निरोग।।
बालक बाला, सब मतवाला, मोहक मंजर।
एक सयानी, पर चल जाता, मोहन मंतर।।
बहुत कटीली रूपसी, पर चलता प्रिय बाण।
चाह रहा कविस्पर्श को, उसका जीवन प्राण।।
प्रीति निभाने ,ह्रदय सजाने, को कवि उत्सुक।
देख चपलता, अति मादकता, कविवर भावुक।।
192…. कुंडलियां
आशा मन में सिर्फ यह, तुम आओगे पास।
अंतस का संकल्प यह, होगा नहीं उदास।।
होगा नहीं उदास, हृदय का कमल खिलेगा।
यह अंतिम विश्वास, प्रेम से स्वयं मिलेगा।।
कहें मिश्र कविराय, त्यागना सदा निराशा।
करते जा शुभ कर्म, फलेगी निश्चित आशा।।
रहना हरदम पास में, समझो अपना मीत।
बहुत दूर से आ निकट, गाओ मधुरिम गीत।।
गाओ मधुरिम गीत, प्रीति की राह बताओ।
खेलो मोहक खेल, हृदय को नहीं सताओ।।
कहें मिश्र कविराय, अंक में भर सब कहना।
लुका छिपी को छोड़, चूमते मन से रहना।।
बनकर दीवाना चलो, बंधन को अब त्याग।
आगे पीछे सोच मत, भरो प्रीति का राग।।
भरो प्रीति का राग, पुराना सारा छोड़ो।
हो जा अब रंगीन, भव्य के प्रति मुंह मोड़ो।।
कहें मिश्र कविराय, देख लो प्यारे चल कर।
दिख जा मालामाल, प्रेम की कविता बनकर।।
193…. पथ (दोहे)
पथ से जिसको प्यार है, पाता सुखद मुकाम।
चलता रहता भाव से, लेते हरि का नाम।।
पथ पर चलना जानते, सच्चे योगी संत।
इनके जीवन में सदा, रहता नित्य बसंत।।
सुंदर मोहक पंथ का, जो साधक वह साध्य।
सारी दुनिया के लिए, बन जाता आराध्य।
उत्तम मानव नित गढ़े, पर उपकारी राह।
स्वर्गिक धरती की सदा, रहती मन में चाह।।
राहगीर उसको समझ, जिसमें शुभ संदेश।
अपनी मोहक चाल से, रचे मनोहर देश।।
पथ निर्माता है सहज, दे विद्या का दान।
विनयशील बनकर चले, छोड़ सकल अभिमान।।
पथिक वही जिसका हृदय, उन्नत दिव्य विशाल।
अमर कहानी नित लिखे, भयाक्रांत है काल।।
194… बढ़ा कदम रुके नहीं
बढ़ा कदम रुके नहीं न प्यार क्षीण हो कभी।
बढ़े चलो मचल चलो अटल रहो मिलो अभी।
वियोग गीत गान की पुकार हो कभी नहीं।
मिलन करो सप्रेम तू विसारना कभी नहीं।
अचल रहे अनंत हो मधूलिका अमर रहे।
गगन चढ़े अनामिका सुनामिका अजर रहे।
प्रणय सहस्र बाहु हो विराजता रहे सदा।
सटीक मंत्र मुग्ध हो निहारता रहे सदा।
अनन्य प्रेमिका मिले जहां न भीड़ भाड़ हो।
दिशा रहे सुहागिनी दिखे सदैव ठाढ़ हो।
रहे न राह रोधिका विशाल काय प्रीति हो।
तिमिर मिटे प्रकाश हो मधुर असीम गीति हो।
सुहाग रात ख्यातिप्राप्त पूर्णिका निहारती।
सुप्रेमिला सुकोमला सदेह बन विचरती।
रुके न पांव अब कभी दिलेर मन बुला रहा।
शनै: शनै: चलो सदा हृदय सुगीत गा रहा।
नहीं विरह वियोग को सकारना कभी प्रिये।
अनंत आसमान की तरह सदा रहो हिये।
195….. दगा (दोहे)
दगा जो जो देता वह पतित, कुटिल नीच शैतान।
क्षमा नहीं करते उसे, शिव महेश भगवान।।
शिव का हत्यारा वही, जिसमें कपट कुचाल।
गला घोट विश्वास का, बनता जग का लाल।।
छल करता जो मित्र से, दगाबाज इंसान।
अपना मुंह काला किये, देता सबको ज्ञान।।
मूर्ख अधम पापी सदा, नहीं किसी का मीत।
बना अनैतिक घूमता, गाता गंदा गीत।।
दागदार नापाक अति, बदबूदार विचार।
गंध मारता दनुज वह, करता पपाचार।।
मायावी कुत्सित हृदय, कुंठित असहज भाव।
अति विघटित व्यक्तित्व ही, देता सबको घाव।।
दूषित जीवन जी रहा, करता है आघात।
मन में शोषण वृत्ति है, सदा लगाए घात।।
196…. नमामि शंभु शंकरम
नमामि शंभु शंकरम भजामि वामदेव को।
प्रणम्य भक्तवत्सलम जपामि ब्रह्मदेव को।
कृपालु विश्वनाथ ज्ञान सिंधु ईश्वरेश्वरा।
दयालु एक मात्र नील लोहितम महेश्वरा।
त्वमेव शूलपाणिनी शिवाप्रिया दिगंबरम।
जटा विशाल गंगधर त्रिनेत्र शिव चिदंबरम।
महा विनम्र बोधिसत्व कालदेव देव हो। विनीत यज्ञ बुद्धिप्रद विवेक एकमेव हो।
त्रिपुरवधिक कुशाग्र उग्र शर्व सर्व प्रेमदा।
सहानुभूति योग पर्व दिव्य धन्य स्नेहदा।
जगत गुरू अजेय विज्ञ सोम शांत संपदा।
कपट रहित विदेह देह नीर भव्य नर्मदा।
वृषांक वीरभद्र सौम्य भर्ग सूक्ष्म साधना।
गिरीश नेक आतमा अनेक सिद्ध आसना।
समूल रूप तत्व रूप हित जगत सुकामना।
अनंत राशि रश्मि शिव हरी हरीश ध्यानना।
197…. नादान (दोहे)
गलती करता है सदा, जड़ मूरख नादान।
ज्ञानशून्य अनुभवरहित, नहीं क्रिया का भान।।
आगे पीछे सोचता, कभी नहीं नादान।
परिणति से मतलब नहीं, नहीं अर्थ का ज्ञान।।
गलती पर गलती करे, समझ शून्य नादान।
पता नहीं उसको चले, अपनों की पहचान।।
दोस्त अगर नादान है, तो सब गड़बड़झाल।
सहज बिगाड़े स्वाद वह, अधिक नमक को डाल।।
अधकचरे नादान का, मत पूछो कुछ हाल।
बिन सोचे बोले सदा, लाये संकट काल।।
अज्ञानी मतिमंद ही, कहलाता नादान।
बना हंसी का पात्र वह, जग में रखता स्थान।।
संज्ञाशून्य बना सदा, दिखता है नादान।
खुद को जाने वह नहीं, नहीं किसी का ज्ञान।।
दूर रहो बच कर चलो, देख नहीं नादान।
नादानों की बात पर, कभी न देना ध्यान।।
198….. नारी का जीवन
तुला समान नारियां असभ्यता नकारतीं।
त्रिशूल कर लिए सदा स्वतंत्रता पुकारती।
समान भाव भंगिमा सुतंत्रिका सुमंत्रिका।
बनी हुई सुनायिका सुपंथ लोक ग्रंथिका।
निरापदा सदा सदा सशक्त वीर अंगना।
सुशोभिता सुकोमाला सहानुभूति कंगना।
दया क्षमा करुण रसिक प्रशांत चित्त भित्तिका।
असीम नीरयुक्तता अपार धर्म वृत्तिका।
कभी नहीं वियोगिनी सुरागिनी सुशांतिका।
अपूर्व युद्धगामिनी अजेय शौर्य क्रांतिका।
पराक्रमी विशाल भाल लोचनीय देहिका।
विराट शिवशिवा सरिस शिला उदार स्नेहिका।
कठोर वर्ण रंग रूप न्यायमूर्ति भामिनी।
अमोल बोल मोहनी वृहद सुवीर्य दामिनी।
सदैव क्लेशहारिणी सतत हरित वसुंधरा।
अनादि सृष्टि साधिका जनन मनन पयोधारा।
199…. फर्ज (दोहे)
प्यार किया अच्छा हुआ, किंतु निभाना फर्ज।
नहीं प्यार से है बड़ा, जीवन में कुछ कर्ज।।
नैतिकता के ग्रंथ में, है पहला अध्याय।
मानव का यह फर्ज है, करे हमेशा न्याय।।
जिसे फर्ज का ज्ञान है, मानव वही महान।
सबके प्रति संवेदना, का हो असली भान।।
फर्ज बहुत अनमोल है, इसका रखना ख्याल।
फर्ज निभाता हर समय, चलता हीरक लाल।।
मत घमंड हो फर्ज पर, यह नैतिक कर्त्तव्य।
जिसे बोध है न्याय का, वह नित मोहक भव्य।।
फर्ज निभाता जो चला, वही सफल इंसान।
जिसे कर्म का ज्ञान है, जग में वही महान।।
फर्ज समझ में आ गया, तो पढ़ना साकार।
अनुचित उचित विचार ही, जीवन का आधार।।
चला पथिक जिस पंथ पर, सदा निभाता फर्ज।
सर्व विश्व अभिलेख में, नाम उसी का दर्ज।।
जीवन के सच अर्थ को, सहज जानता फर्ज।
फर्ज निभाने में कहां, कोई कुछ भी हर्ज।।
हाला पीता फर्ज की, मस्ताना बलवान।
मस्ती में वह झूमता, स्थापित हो पहचान।।
200…नजारा
बहुत मस्त तेरा नजारा अलौकिक।
असर जादुई दिव्य मोहक अभौतिक।
बरसती जवानी मचलता वदन है।
गमकती सुनयना चहकती सुगन है
सदा छेड़ती तान मादक रसीली।
बड़ी मोहनी है सुघर नित छबीली।
बहुत कोमलांगी नवेली कली है।
सुहानी लुभानी बहकती चली है।
सदा प्रेम खातिर तड़पता हृदय है।
फड़कती अदाएं मनोरथ उदय है।
गरमजोश विह्वल बनी दामिनी है ।
सदा नित्य नूतन गगन गामिनी है ।
भुजाएं ध्वजा सी चमकती त्वचा है।
मदन मस्त मौला मधुर रस रचा है।
कराओ सदा पान अमृत कलश ले।
नशीले अधर लोक रख दो अधर पे।
201…. देवी स्तुति (पंचचामर छंद)
सदा अकेल श्रृष्टि कर्म लोक धर्म पालिका।
बहुल बनी विवेविका अनेक एक साधिका।
नितांत शांत मौन धाम प्रेम रूप राधिका।
असुरअरी सुसाधु चित्त कंस वंश वाधिका।
समय महान एक तुम सुकाल हो अकाल हो।
कुकृत्य सर्व हारिणी परोपकार चाल हो।
महंत संत सेविका महा मही सुपाल हो।
अनंत देव देवियां समेत यज्ञ माल हो।
निकाय नित्य नायिका नमामि नम्र नर्मदा।
सहानुभूति सभ्य शैव शीत शुद्ध सर्वदा।
अलक्ष्य लक्ष्य लेखिका ललाट लुभ्य लालिता।
कवित्त वित्त पोषिका सुपालिनी स्वपोषिता।
वचन सुखद प्रचारिका महातमा विचारिका।
सरल विनय विनीत विज्ञ विद्य सिंधु धारिका।
प्रचंड ज्ञानदायिनी सरस्वती सुपूजिका।
अधर मधुर करो सदैव मातृ देहि जीविका।
202…. वे यादें (सानेट)
गुरुवर ने जो ज्ञान सिखाया।
उनकी याद बहुत आती है।
मन की ललिता गुण गाती है।
गुरुवर ने ही मनुज बनाया।
मात पिता की याद सताती।
पाल पौष कर बड़ा किये वे।
संरक्षण दे खड़ा किये वे।
उनके बिना दुखी दिल छाती।
सगे सहोदर के संस्कारों,
की ऊपज यह मेरा मन धन।
खिला हुआ रहता सारा तन।
आओ मिल लो आज बहारों!
यह जीवन यादों की धरती।
सहज बुद्धि है इस पर चरती।
203…. पावन इरादा
मिलेगी सदा राह सुंदर सुहानी, अगर शुभ्र पावन इरादा रहेगा।
मिलेगा सहारा सुनिश्चित समझ लो, मिलेगा सुयोगीय वादा रहेगा
सहायक कदम दर कदम पर मिलेंगे, पकड़ हाथ मंजिल दिखाते रहेंगे।
न समझो अकेला बहुत साथ तेरे, तुम्हारे कदम को बढ़ाते रहेंगे।
मिलेगी खुशी बस निकल घर न सोचो, हृदय में रखो एक उत्तम मनोहर।
सहज दीप लेकर चलो जय ध्वजा ले, बने जिंदगी प्रेरणामय धरोहर।
204…. सुशांत देश (पंचचामर छंद)
रचा करो सुशांत प्रांत भ्रांत तर्क छोड़ दो।
सुतर्क बुद्धि साधना विवेक स्वर्ग जोड़ दो।
मरोड़ ग्लानि तोड़ द्वेष दर्प भेद त्याग दो।
अनेक में अनन्त हेतु शून्य अंक भाग दो।
प्रशांत हिंद देश का करो सदैव कामना।
टपक बहे अमी सुधा यही सुबोध याचना।
भरत मिलाप हो सदा जगत बने सहोदरम।
सुनीति प्रीति रीति से बने सुगीति सुंदरम।
कुटिल दनुज अधर्म पाप मोह वासना जरे।
सदा उपासना करे मनुज सुधारणा धरे।
पवित्र मन विचारवान स्नेह विश्व में भरे।
तथा रहे न देहवाद शोषणीयता मरे।
205…. फैसला
किया फैसला प्यार चलता रहेगा।
नहीं यह झुकेगा नहीं यह डरेगा।
गलत कुछ नही है शिकायत नहीं है।
सदा प्यार करना कवायद सही है।
दिया ईश ने है वरक्कत निशानी।
कभी कम न होगा सुरा की रवानी।
हृदय में सदा प्यार बहता रहेगा।
जगत को शुभाशीष देता चलेगा।
रुकेगी नहीं नित्य धारा बहेगी।
सदा भूमि अमृत सलोनी रहेगी।
जरूरत जिसे प्यार की बूंद की है।
मिलेगी उसे राह शिव भौतिकी है।
निराशा हताशा नहीं मानसिक हो।
बढ़ो प्रेम पथ पर समझ इक पथिक हो।
सुमन खिल उठेगा चमन मुस्कराये।
सुदिन एक दिन साज सज्जा सजाये।
206…. प्यार का रंग (सजल)
नहीं प्यार का रंग फीका पड़ेगा।
गमकता चमन सा सदा यह खिलेगा।
सनातन पुरातन नवल नव्य नूतन।
सदा यह सुहागन हृदय सा दिखेगा।
बड़े भाग्य का फल सदा प्यार होता।
विगत जन्म सत्कर्म का रस मिलेगा।
मिलेगा कभी साथ ऐसे पथिक का।
चलो संग प्यारे निकट आ कहेगा।
पकड़ बांह हरदम सजायेगा डोली।
मिला कर कदम से कदम वह चलेगा।
थिरक कर मचल कर दिखायेगा जलवा।
तुम्हारे हवाले वतन वह करेगा।
अधर को अधर से मिलाये सदा वह।
वदन को वदन से सहज बांध लेगा।
बड़े नम्र आगोश में भर तुझे वह ।
मिलन की सहज रात यौवन भरेगा।
207…. सत्य विचार (पंचचामर छंद)
यही विचार सत्य है कि भाव ही प्रधान है।
धनी वही सुखी वही जिसे यही सुज्ञान है।
धनिक समझ उसे नहीं पिपासु जो अनर्थ का।
गवा रहा स्वयं सदा निजी जमीन व्यर्थ का।
पढ़ो वही सुकल्पना जहां स्वभाव रम्य है।
गढ़ो वही सुशासना जहां प्रभा सुरम्य है।
नढ़ो नवीन बंधना भला करो बुरा नहीं।
चढ़ो अनंत शैल पर अमी बनो सुरा नहीं।
शराब आत्मज्ञान का कुधान्य का पियो नहीं।
अमर्त्य हो असीम हो कुकर्म को जियो नहीं।
सदा रहो सुगर्मजोश दिल दरिंदगी नहीं।
जहां नहीं हृदय प्रफुल्ल है न जिंदगी वहीं।
जहां कहीं कटील राह पंथ को संवार दो।
चलें सभी सुडौल चाल स्नेह नीर धार दो।
कड़क नहीं मधुर वचन सदा बहार बन बहे।
न निंदनीय याचना करे मनुज कभी कहे।
208…. हिंदी दिवस पर कुंडलिया
हिंदी मेरी जानकी, हिंदी मेरे राम।
हिंदी में शंकर सदा, हिंदी में घनश्याम।।
हिंदी में घनश्याम, लिए मुरली वे चलते।
देते हैं उपदेश, मनुज बनने को कहते।।
कहें मिश्र कविराय, चमकती जैसे बिंदी।
उसी तरह से दिव्य, भव्य है देवी हिंदी।।
हिंदी में मधु प्यार अति, हिंदी में अनुराग।
हिंदी में मानव छिपा, हिंदी में है त्याग।।
हिंदी में है त्याग, हिंद हिंदी के नाते।
अति संवेदनशील, मनुज हिंदू कहलाते।।
कहें मिश्र कविराय, यहां शिव जी का नंदी।
तपोभूमि का पृष्ठ, बनाती हरदम हिंदी।।
हिंदी वैश्विक नाम है, लोक भाव वन्धुत्व।
हिंदी में पुरुषार्थ है, आश्रम वर्ण गुरुत्व।।
आश्रम वर्ण गुरुत्व, पूर्ण है हिंदी मानव।
है पावन अनमोल, हिंद का निर्मल मानव।।
कहें मिश्र कविराय, यहां नहिं हरकत गंदी।
सबके प्रति सद्भाव, सिखाती जग को हिंदी।।
209…. मेरी डायरी (दोहे)
मेरी प्यारी डायरी, दिखे भरे बहु रंग।
सभी पृष्ठ हैं बोलते, खूब जमये भंग।।
दिन प्रति दिन लिखता रहा, कुछ कुछ घटना चाल।
प्रेम और संताप से, पूरित यह मतवाल।।
घटनाएं जब प्रेम की, घटती थीं मुस्काय। प्रेमी लेकर डायरी, लिखता खुश हो जाय।।
पाती पढ़ कर प्यार की, चलता लेखन काम।
स्नेह रत्न का रट लगे, पाए हृदय मुकाम।।
संतापों की मार का, भी होता है जिक्र।
लिख लिख भरती डायरी, मन होता बेफिक्र।।
रंग बिरंगे लोक का, गजब डायरी देख।
विविध रूप के आचरण, का यह नित अभिलेख।।
शोधपरक है डायरी, करती बहुत कमाल।
पा कर अंतर्वस्तु को, शोधछात्र खुशहाल।।
मौलिक तथ्यों से भरा, पड़ा हुआ है लेख।
अंकित सच्ची जिंदगी, की इसमें विधि रेख।।
लिखना पढ़ना डायरी, है बौद्धिक संवाद।
जिसको प्रिय है डायरी, वह रहता निर्वाद।।
प्यारी प्यारी डायरी, लेखन एक विधान।
कागजात यह उर्वरक, देता मौलिक ज्ञान।।
210…. समर्पण (सानेट.. स्वर्णमुखी छंद)
बिना समर्पण नहीं सफलता।
मनोयोग का यह दर्शन है।
सतत क्रिया के प्रति नित स्पर्शन।
भाव समर्पित दिव्य गमकता।
कर्म लक्ष्य जब नित्य दीखता।
कर्त्ता प्रति क्षण आगे भागे।
शुभ आयोजन के प्रति जागे।
कर्मनिष्ठ मन सहज सीखता।
त्यागयुक्त मानव बड़ भागी।
अपने को वह अर्पित करता।
श्रद्धास्पद हो सजग चमकता।
शिव कर्मों के प्रति अनुरागी।
जहां समर्पण भाव विचरता।
सब कुछ संभव वहीं थिरकता।।
211…. मकर संक्रांति (दोहे)
मकर राशि में सूर्य का, होता प्रेम प्रवेश।
रहने को उत्सुक सहज, भास्कर उत्तर देश।।
यह अति पावन काल है, जगती का त्योहार।
प्रिय शुभ का सूचक यही, महा पर्व साकार।।
दान पुण्य का समय यह, गंगा जी में स्नान।
करते सब श्रद्धालु हैं, मिले मुमुक्षी ज्ञान।।
खिचड़ी चावल दाल की, खाते हैं सब लोग।
दे गरीब को अन्न भी, होते दिव्य निरोग।।
घी खिचड़ी में डाल कर, सभी लगाते भोग।
हिंदू सारे विश्व में, करते जन सहयोग।।
परम विराट परंपरा, प्रेमिल स्नेहिल भाव।
मृदुल स्नेह की स्थापना, सबके प्रति सद्भाव।।
मकर राशि है प्रेमिका, प्रेमी सूरज देव।
इस अनुपम मधु मिलन के, प्रति मोहित सब देव।।
दिन प्रति दिन इस पर्व पर, बढ़ता दिखता गर्व।
सब धर्मों के लोक का, यह संक्रांति सुसर्व।।
212…. छोटा कौन बड़ा मानव है?
छोटा मानव है वही, जिसका तुच्छ विचार।
खुद को कहता है बड़ा, करता निंदाचार।।
बड़ा वही धनवान है, जिसमें शिष्टाचार।
अपने को छोटा कहे, करे सभ्य व्यवहार।।
छोटे की पहचान यह, करता मिथ्याचार।
अभिमानी कलुषित हृदय, दुर्जन मन व्यभिचार।।
बड़ा हुआ इंसान वह, जिसमें सच्चा स्नेह।
आत्म भाव भरपूर वह, रहता बना विदेह।।
मानवता से प्रेम ही, बड़ मानुष का भाव।
सहज समर्पण वृत्ति प्रिय, प्रेमिल संत स्वभाव।।
वह मानव इस जगत में, निंदनीय अति छोट।
पहुंचता इंसान को, अनायास है चोट।।
बड़ा अगर बनना तुझे, छोटा बनना सीख।
दर्परहित रहना सदा, परहितवादी दीख।।
अनायास जो दे रहा, सच्चे को उपदेश।
लुच्चा छोटा वह दनुज, कपटयुक्त है वेश।।
बड़ा कभी कहता नही, खुद को बड़ इंसान।
पूजन करता लोक का, जिमि समग्र भगवान।।
अहित किया करता सदा, नित छोटा इंसान।
बड़े मनुज के हृदय में, स्वाभिमान का ज्ञान।।
जिसके दिल में पाप है, उसको छोटा जान।
बड़ा कभी करता नहीं, अपने पर अभिमान।।
213…. जिंदगी इक पहेली है ।
मापनी 212 212 22
जिंदगी इक पहेली है, जान पाना बहुत मुश्किल।
जान लेता इसे बौद्धिक, आत्म ज्ञानी सहज मौलिक।
जान पाये इसे गौतम, बुद्ध रामा सदा कृष्णा।
सब सहे रात दिन झेले, मारते हर समय तृष्णा।
कौन पढ़ता चरित वृंदा, कौन आदर्श को जाने।
सब यहां दीखते जाते, हर समय नित्य मयखाने।
मायका ही सुघर लागे, घर ससुर काटता दौड़े।
धन बहुत की यहां चाहत, पाप की नाव नद पौड़े।
जिंदगी की समझ टेढ़ी, सत्य की खोज है जारी।
आस्तिकी भावना गायब, नास्तिकी सिंधु की बारी।
मोह माया अधोगामी, है भयानक घटा काली।
शान झूठे दिखाता है, आज का मन गिरा नाली।
प्यार के नाम पर धोखा, कायराना लहर चलती।
जेल में सड़ रहा कातिल, जिंदगी हाथ है मलती।
214…. राष्ट्रमान (पंचचामर छंद)
अभिन्न राष्ट्रमान हो यही प्रसिद्ध गान है।
रहे सदैव राष्ट्रध्यान ज्ञान राष्ट्र शान है।
विहार राष्ट्र गेह में करे सदैव चेतना ।
रहे समूल राष्ट्र में सदेह मन जड़ी तना।
समझ स्वराष्ट्र को सदा यही अमोल धान्य है।
करो सदैव प्रेम पाठ राष्ट्र भाव काम्य है।
रहे न हिंसकीय भाव राष्ट्र संपदा बड़ी।
इसे न फूंकना कभी, जले नहीं कभी खड़ी।
यही महान संपदा करो नितांत रक्षणम।
सदा सहायता करो कभी करो न भक्षणम।
समान राष्ट्रवाद के नहीं यहां विभूति है।
मरा जिया स्वराष्ट्र प्रति वही महा विभूति है।
215…. मनसिंधु
नमन करो समुद्र मन मनन करो सचेत हो।
गमन करो विचार कर सदा प्रयोग नेत हो।
तरह तरह सजीव जंतु भांति भांति लोक है।
विचर रहे अनेक रूप राज नग्न शोक है।
विभिन्नता विशिष्टता सहिष्णुता सुशिष्टता।
कठोरता परायता अभद्रता अशिष्टता।
सगुण अगुण निगुण विगुण निरूप रूप रश्मियां।
असीम राशियां यहां अचेत चेत अस्थियां।
सुयोग योग रोग भोग रत्न माल मालिनी।
विराट सृष्टि प्राकृतिक मनोज सिंधु शालनी।
विवेक बुद्धि ज्ञान से करो सदैव मंत्रणा।
चुनो सदा बुनो वही बने सहाय रक्षणा।
पहन सहर्ष मालिका सुरत्निका सुपालिका।
वरण करो सुपात्रता सुशोभनीय न्यायिका।
216…. लकीरें
लकीरें मिटाना लकीरें बनाना,
बनी जो लकीरें उन्हें लांघ जाना,
बहुत श्रम सघन मांगती हैं लकीरें,
लकीरें दिखातीं नवल नव निशाना।
सभी की लकीरें अलग सी अलग हैं,
किसी की लकीरें अकल की नकल हैं,
चला जो अकेला बनाता कहानी,
उसी की लकीरें अचल सी अटल हैं।
उकेरा स्वयं को बढ़ाया कदम को,
दिखाया जगत को स्वयं आप दम को,
उसी की लकीरें दिखाती सुहाना,
सफर को; बतातीं सिखाती सुश्रम को।
बनो वे लकीरें जिन्हें छू न पाया,
जमाना उन्हें देख कर सोच पाया,
बहुत है कठिन पंथ ठोकर बड़े हैं,
लकीरें बनायां वही नाम पाया।
217…. नदियां (दुर्मिल सवैया)
नदियां बहती चलती रहतीं बढ़ती कहतीं रमणीक बनो।
सबका उपकार किया करना रहना जग में प्रिय नीक बनो।
सब सींच धरा खुशहाल करो हरियाल करो सगरी जगती।
रुकना न कहीं चलते रहना अति पावन वृत्ति जगे हंसती।
सब वृक्ष उगें अति हर्षीत हों सबमें मधु पल्लव पुष्पन हो।
सब आवत धाम नदी तट पे सबमें मधु बौर सुगुम्फन हो।
फलदार बनें सब दें जग को फल मीठ अलौकिक है सुखदा।
बन छांव सदा हरते दुःख क्लेश सहायक ग्रीषम में वरदा।
सरयू नदिया मनभावन है वह राम चरण नित धोवत है।
नित गंग नदी शिव शंकर जी कर स्नान शिवा घर सोहत हैं।
यमुना अति निर्मल नीर लिये प्रभु कृष्णन पांव पखारत है।
नदिया प्रिय पावन शारद रूप सदा शिव ब्रह्म बुलावत है।
नदियां सब कोमल ज्ञान भरें अति शुभ्र सनेह लगावत हैं।
हर जीव सुखी नदियां जल पी सब हर्षक गीत सुनावत हैं।
पुरुषार्थ चयुष्ठय दान दिया करती नदियां हर जीवन को।
सबसे मिलती सबको मिलती करतीं वरुणा करुणा मन को।
218…. मां सरस्वती जी की वन्दना
सदा रहे प्रसन्न मात शारदा सरस्वती।
विवेक हंसवाहिनी शुभांगना यशोमती।
सदैव ज्ञानरूपिणी प्रियम्वदा सदा सुखी।
सुयोग योगधारणी अनंतरा बहिर्मुखी।
सदा सुखांतकारिणी दयानिधान दिव्यदा।
हरें सकल कुदृष्टि भाव बुद्धिदात्रि शारदा।
बनें सहस्र लेखनी लिखा करें घनाक्षरी।
सुगीत गायनादिका रचें सदा महेश्वरी।
सुपुस्तिका बनी खिलें चमक बिखेरती रहें।
सुबोधगम्य भारती सरस सलिल बनी बहें।
तुम्हीं सुप्रीति गीतिका मधुर ऋचा बसंतिका।
उदार चेतना समग्र माधुरी अनंतिका।
विराट ब्रह्मरूपिणी सुसांस्कृतिक धरोहरा।
सनातनी सुधर्मिणी सुनामिनी मनोहरा।
अजेय देव देविपुंज देवघर दयालिनी।
अनंत नेत्र आनना सुडौल रूप मालिनी।
पराक्रमी महान वीर भूमि युद्ध पावनी।
मधुर वचन सुभाषिणी अनूप भाव सावनी।
सुपाणिनी सुग्रंथिका सुवीणपाणि शारदा।
अमोल अमृता बनो सुगंध ज्ञान दानदा।
सुधा समुद्र रूप खान हो अजर अमर तुम्हीं।
रहे स्वतंत्रता सदा निहारती रहे मही।
स्वतंत्र देश भारतीयता बनी रहे यहां।
बसंत ऋतु स्वराज राग काम्य पुष्प हो यहां।
219…. मुहब्बत
ग़ज़ल लिख रहा हूं सजल लिख रहा हूं।
मुहब्बत सुरीली तरल लिख रहा हूं।
बहुत कुछ यहां किंतु मिलते कहां हैं।
मुहब्बत रसीली सरल लिख रहा हूं।
सदा खोजता मन खिलौना सुहाना।
मुहब्बत रवानी अमल लिख रहा हूं।
बहुत याद आते चहेते सुनहरे।
रुपहली मुहब्बत कमल लिख रहा हूं।
सजा मन थिरकता इधर से उधर तक।
चहकती मुहब्बत अटल लिख रहा हूं।
अकेले अकेले नजर दौड़ती है।
समायी मुहब्बत अचल लिख रहा हूं।
परेशान मन ढूढता है ठिकाना।
मुहब्बत सुघर को मचल लिख रहा हूं।
मिलेगी मुहब्बत जरूरी नहीं है।
लगा कर अकल मधु सकल लिख रहा हूं।
नहीं निर्दयी है मुहब्बत कुमारी।
कलम चूम लेगी सफल लिख रहा हूं।
220…. संयम (मालती सवैया)
संयम योग विधान महान सदा सुखदायक भाव जगावे।
मानस को अति शुद्ध करे हर भांति कुरोग असत्य भगावे।
सुंदर हार्दिक रूप गढ़े प्रिय मानव भाव सुशील बनावे।
मूल प्रवृत्ति अपावन को यह उत्तम मोहक राह बतावे।
यंत्र महान निरोध करे मन को अति शीतल शांत करावे।
तारक संकटमोचन संयम दिव्य स्वभाव अभाव भगावे।
संत सभी उपयोग करें मुख से सब शोधित बात सुनावें।
हंस बने विचरें जग में सबको मधु रूपक मंत्र सिखावें।
कानन मंगल गायन हो सबमें रसराज बसंत दिखेंगे।
मोहन कृष्ण बने मुरलीधर योग सुसंयम नित्य लिखेंगे।
221…. ओस की बूंद
ओस की बूंद का हाल पूछो नहीं, औषधी से भरी यह अमी रस विमल।
रात की वायु हो नम बनी नीर कण अति सुनहरी सलोनी निखरती सजल।
देख इसको लगे शुभ्र मोती महल यह प्रकृति की रुहानी अदा है धवल।
तृप्त होता नहीं मन कभी ओस से पेट भरता नहीं है कभी भी चपल।
मूल्य इसका समझना बहुत है कठिन जीवनी लिख रही यह बहुत काल से।
जिन्दगी बन मचलती सदा स्वस्थ कर मुक्ति देती सभी को महा काल से।
घास पर बैठ हंसती सदा गीत गा स्वर्ण युग को दिखाती धरा पर सदा।
देख इसको पथिक मुग्ध हो कर खड़े आंख की रोशनी को बढ़ाते सदा।
भेंट अक्षुण्ण निरोगी करे जीव को ओस संघर्ष का फल मनोहर सदा।
प्राकृतिक साधना से दमकती यही ओस निर्मल सुघर सुंदरी है सदा।
222…. सहानुभूति (पंचचामर छंद)
दुखी मनुष्य देख कर दुखानुभूति जो करे।
महा विभूति लोक में वही मनुष्य शिव हरे।
यही अमर विवेक है परार्थ चाव भाव हो।
दिखे मनुष्य की व्यथा यही परम स्वभाव हो।
जिया स्वयं समूल स्वार्थयुक्त है मनुष्य क्या?
नहीं किया परोपकार है कभी मनुष्य क्या?
जिसे न ज्ञान और का पिशाच जान है वही।
मिटा रहा निजत्व को मशान पर पड़ा वही।
अशोभनीय स्वार्थ मन नहीं उदार वृत्ति है।
क्षमा नहीं दया नहीं कठोर चित्तवृत्ति है।
सहानुभूति भावना कभी न लेश मात्र है।
परानुभूतिबुद्धिशून्य भग्न नग्न पात्र है।
करुण जहां कहीं नहीं भयंकरा निशाचरा।
सुबुद्धि निर्मला अनंत दिव्य प्रेम दायरा।
223….. कली (पंचचामर छंद)
कली चली अनादि से अनंत सैर के लिए।
रुकी नहीं कभी कदा सुखांत खैर के लिए।
पथिक बनी शुभांगना सुकोमली सुदर्शिनी।
उदीयमान दिव्यमान भव्यमान शालिनी।
लिये उदर सुपुष्प मालिका सदा सुहागिनी।
फली कली अली बुला रही सहर्ष रागिनी। किया करे प्रदक्षिणा बढ़े चढ़े सुदेव को।
बनी सुगंधिता सजे ललाट विश्वदेव को।
कली भली कुलीन तंत्रिका सदैव कामिनी।
दयालु भाव देख लख प्रसन्नचित्त यामिनी।
गगन निहारता सदा अमी चमन विलोकता।
मधुर मधुर महक रही कली कुमारि लोचता।
224…. तेरी चूड़ियां
चूड़ियां खनक रहीं मचल रही सुहागिनी।
चूड़ियां चमक रहीं बजा रही सुकामिनी।
देख देख रूप रंग विश्व सर्व मुग्ध है।
चूड़ियां थिरक रहीं सुगोल गोल गामिनी।
दर्शनीय वंदनीय शोभनीय चूड़ियां।
लाल लाल पीत पीत नीक नीक चूड़ियां।
नेत्र सुख सदा अनूप प्रेम दृष्टिदायिनी।
मस्त मस्त चाल ढाल गोपि नृत्य चूड़ियां।
झांक झूंक आदमी विलोकनीय चूड़ियां।
रास रास रंग भूमि नाटकीय चूड़ियां।
खोय खोय होश को अमूर्त देह आदमी।
पूड़ियां खिला रही सदा बहार चूड़ियां।
225…. रिश्तेदार (दोहे)
रिश्ते नाते स्रोत से, बहे सुगंध बयार।
सहज महकते हैं सतत, मोहक रिश्तेदार।।
रिश्तेदारी से बड़ा, नहीं और सम्बंध।
मिलने पर आती सदा, अनुपम स्वर्गिक गंध।।
सुख की चाहत है अगर ,खोजो रिश्तेदार।
कठिन घड़ी में ये स्वयं, करते नैय्या पार।।
अच्छे रिश्तेदार प्रिय, लगते हैं भगवान।
दिल से करते मदद हैं, तन मन धन का दान।।
खुशियां मिलती हृदय को, मानस होय प्रसन्न।
रिश्तेदारों के मिलन, से घर सुख संपन्न।।
रिश्ते जितने मधुर हों, उतना ही आनंद।
उत्तम रिश्तेदार हैं, इस जीवन में चंद।।
शुभ भाग्यों के उदय से, मिलते रिश्तेदार।
मानवीय सत्कृत्य से, है रिश्तों का तार।।
226…. प्रियतम (दोहे)
प्रियतम को समझो सदा, वे हैं अमृतभोग।
रहना उनके संग नित, काटेंगे सब रोग।।
जो प्रियतम को मानता, करता है विश्वास।
रहता सतत प्रसन्न अति, होता नहीं उदार।।
प्रियतम से ही बात हो, कभी न छोड़ो संग।
मस्ती में जीवन चले, मस्त मस्त हर अंग।।
प्रियतम ईश्वर रूप है, मधुर दिव्यअनमोल।
आजीवन सुनते रहो, मीठे मधुरिम बोल।।
रख प्रियतम को हृदय में, रहे उन्हीं पर ध्यान।
राधा कान्हा प्रेम का, यह अति सुखद विधान।।
प्रियतम को जो चूमता, डाल बांह में बांह।
वह शीतल मधु लोक का, पाता हरदम छांह।।
227…. कन्या लक्ष्मी रूप है ।
कन्या के सम्मान से, यश वैभव की वृद्धि।
बढ़ता घर परिवार है, होती धन की सिद्धि।।
कन्या धन सर्वोच्च का, हो अनुदिन सम्मान।
रक्षा करना हर समय, हो उस पर ही ध्यान।।
मन में हो कटिवड्ढता, हो दहेज काफूर।
वैदिक पद्धति से सहज, हो विवाह भरपूर।।
वर के अभिभावक करें, उत्तम शिष्टाचार।
हो दहेज के नाम पर, कभी न अत्याचार।।
संवेदन को मार कर, मानव करता लोभ।
गला घोटता हृदय का, किंतु न होता क्षोभ।।
ले दहेज की राशि को, कौन बना धनवान?
करो भरोसा कर्म पर, बनो विनीत महान।।
कन्या के सम्मान से, होता घर खुशहाल।
जो दहेज के लालची, वे दरिद्र वाचाल।।
मानवता का पाठ पढ़, कभी न मांगो भीख।
मत दहेज याचक बनो, ठग विद्या मत सीख।।
जो दहेज को मांगता, वह दरिद्र इंसान।
इस अधमाधम वृत्ति से, कौन हुआ धनवान??
ईश्वर के आशीष से, मनुज होय धनवान।
जो दहेज से दूर है, वह मोहक इंसान।।
जो दहेज के नाम पर, करता है व्यापार। अत्याचारी नीच का, मत करना सत्कार।।
मत दहेज लेकर कभी, बन पूंजी का बाप।
करो अनवरत रात दिन,आत्मतोष का जाप।।
कन्या खुद में मूल्य है, प्रिय लक्ष्मी की मूर्ति।
कन्या को ही पूज कर, हो इच्छा की पूर्ति।।