मौन भी क्यों गलत ?
इन्सान हूँ मैं,
मुझे फर्क पड़ता है
जब कोई मेरी भावनाओं से
पुनः पुनः खेल जाता है ।
या फिर
स्वयं को सिद्ध करने में
अनर्गल मिथ्यारोप मढ़ जाता है ।
मुझे कहने में गुरेज नहीं
कि बहुत दुःखता है मन
जब मेरी सरलता को
चालाकियाँ छल जाती हैं ।
नहीं आता मुझे
इन सबका प्रतिवाद करना ।
मैं सही वो गलत
इन सब बातों में उलझना ।
हाँ, बस मैं किनारा कर लेती हूँ
उन सभी से ।
मौन हो जाती हूँ बिल्कुल
ताकि घटनाओं की पुनरावृत्ति
पुन: न छल सके ।
क्या इतना भी अधिकार नहीं
आत्मसम्मान की राह में ?
मेरा इस तरह मौन हो जाना
क्यों गलत सिद्ध किया जाता है ?
हमें बचपन से सिखाया गया
गलत का साथ न देना
या कुवृत्तियों का विरोध
फिर जीवन में उसका अनुकरण
गलत क्यों ?
क्या ये नैतिक मूल्य मात्र
बाह्य जगत या किताबों के लिए हैं?
हमारे परिवार, मित्र, रिश्तेदार
क्या इस परिधि से बाहर हैं ?
उनके अनुचित कृत्यों के पश्चात
मेरा मौन अन्तर्विरोध भी
क्यों गलत ठहरा दिया जाता है?
उनके छल व दुर्व्यवहार के प्रत्युत्तर में भी
क्यों मेरे अपने ही
मुझसे प्रेम व सम्मान की अपेक्षा रखते हैं।
मुझे पता है ये श्रेष्ठता है
किन्तु मैं साधारण इन्सान हूँ
नहीं आसान होता मेरे लिए
सब भूल कर माफ कर पाना।