कविता
विधा-गीत
विषय-‘वृद्धाश्रम’
विधान-16, 14 (ताटंक छंद, अंत तीन गुरु से)
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“वृद्धाश्रम”
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मुखड़ा
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जीर्ण-शीर्ण ममता की मूरत,वृद्धाश्रम में रोती है।
गीली लकड़ी सी जलकर वो,अपनी आँखें खोती है।
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अंतरा-1
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प्रभु चौखट पर शीश टेक कर,उसने मन्नत माँगी थी।
बेटे की माता बनने पर, कितनी रातें जागी थी।
कुलदीपक को गोद सुलाकर,उसने लोरी गायी थी।
बेटे की हर सुविधा ख़ातिर, उसने दुविधा पायी थी।
छली गई निज सुत से जननी,अपनों का दुख ढोती है।
गीली लकड़ी सी जलकर वो,अपनी आँखें खोती है।।
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अंतरा-2
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खेल-खिलौने बनकर उसने, सुत का मन बहलाया था।
अँगुली थामे उसे चलाया, आँचल में दुबकाया था।
अंध भरोसा कर निज सुत पर,अपना सब कुछ वारा था।
शूल बना उसके आँगन का, आँखों का जो तारा था।
नैतिकता की पौध लगाकर, कंटक खेती होती है?
गीली लकड़ी सी जलकर वो,अपनी आँखें खोती है।।
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अंतरा-3
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यौवन में रति सुख मन भाया, जिसकी सूरत प्यारी थी।
तोड़ दिया दिल माँ का उसने, ऐसी क्या दुश्वारी थी?
दौलत नाम लिखा माता से,दंभी ने झटकारा था।
निकल पड़ी माँ अपने घर से,बेटे ने दुत्कारा था।
वृद्धाश्रम में आज सिसकती,सारी दुनिया सोती है।
गीली लकड़ी सी जलकर वो,अपनी आँखें खोती है।।
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अंतरा-(4)
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जिसको छाती से चिपकाकर, माँ ने लहू पिलाया था।
दूध कलंकित करके उसने, माँ को ही ठुकराया था।
फफक-फफक कर बुझती बाती,अपनी व्यथा सुनाती है।
पथराई आँखों से ममता,निद्रा दूर भगाती है।
झूठी मक्कारी बेटे की, आँसू से क्यों धोती है?
गीली लकड़ी सी जलकर वो,अपनी आँखें खोती है।
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अंतरा-5
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वृद्धाश्रम में आ बच्चों से ,टूट रहा अब नाता था।
पत्थर को पिघलाती कैसे,रूठा आज विधाता था।
टूटे शाखा से जो पत्ते, मिल माटी मुरझाएँगे।
एक दिवस ये भटके बच्चे, करनी पर पछताएँगे।
समझेंगे खुद माँ की ममता, बात नहीं ये थोती है।
गीली लकड़ी सी जलकर वो, अपनी आँखें खोती है।
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कठिन शब्द
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थोती=सारहीन
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
वाराणसी (उ. प्र.)
संपादिका-साहित्य धरोहर