कविता
सिसकते वृक्ष
बना मानव धरा दानव सिसक हर वृक्ष कहता है,
घुटन जीने नहीं देती भयावित वृक्ष रहता है।
हरित आभा धरा को दे किया श्रृंगार उपवन का,
ज़हर पीकर प्रदूषण का बना आधार जीवन का।
पनपता द्वेष जब देखूँ करे मन आसमां छू लूँ ,
चढूँ प्रस्तर बना सीढ़ी जगत की नफ़रतें भू लूँ।
व्यथा का धुंध तज दूँ आज बादल हर्ष का बन कर,
रचाऊँ भोर की लाली हथेली प्रीत की छन कर।।
लगा कर लेप चंदन का सुखद शीतल पवन कर दूँ,
झुला कर नेह का झूला सहज समता सुमन भर दूँ।
परिंदा बन उड़ूँ नभ में मिले सुख मन वहीं ले चल,
बना कर संतुलन पग-पग उड़ाकर तन कहीं ले चल।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
महमूरगंज, वाराणसी (उ. प्र.)
संपादिका-साहित्य धरोहर