(कविता) !! नया सवेरा !!
कितनी कथाएं लिखूं,या
शब्दों को काब्यों में रचूं
शब्द शिथिल हो गए
पात्र र्जीर्ण,कान्तिहीन
नवीनता के हण सारे
पूर्वाग्रह के कटघरें में
बंद पड़ गए
फिर क्या
लेखनी छोड़ दूं
या रचना से
नाता तोड़ लूं
आशा से दामन
विश्वास का गला घोंट दूं
नहीं यह तो
बुजदिली है
शब्दों पर कुठाराघात
तो फिर क्यों न
आशा से स्वर लूं
स्वप्नों से आकार
आस्था से शब्द
द्ढ़ता से विश्वास
नयी लेखनी
नयी रचना
नयी कल्पनाओं
सुंदर संसार
तब होगी
भोर नयी
होगा नया सवेरा
जैसे घने बादल
के छंटने से
आता है धूप घनेरा
स्व रचित डॉ.विभा रजन (कनक)