कविता
चाह नहीं कि मै कोई स्मारक बनूं
न किसी के चोट का कारक बनूं ।
न किसी राहगीर के पैरों का ठोकर
न किसी मंदिर की मूर्ति का धारक बनूं ।
न तो किसी मस्जिद की ऊँची मीनार
न बनूं किसी चर्च की कीमती दीवार ।
न महापुरुष की प्रतिमा का आकार
न बनूं अमीर के घर का चौखट द्वार ।
हे प्रभु! मेरी बस यही है प्रार्थना
बनूं मजलूम के हाथों का औजार
बच्चों के फल तोडने का हथियार
जिस से पेट पाल लेता हो कुम्हार
या शहीदों के समाधि का आधार ।
-अजय प्रसाद