कविता
“किन्नर”
******
किसे सुनाऊँ मौन व्यथा मैं
कौन जगत में है अपना,
जन्म लिया किन्नर का जब से
लगता है जीवन सपना।
मातृ कोख से जन्मा हूँ मैं
क्यों समझा मुझे इक पाप,
ईश की जन्मी विकृत रचना
भू पर क्यों बनी अभिशाप?
कहलाता विकलांग अगर मैं
अंगहीन मेरा होता,
आरक्षण भी मिला न जग में
दो रोटी को क्यों रोता?
मातु-पिता का नाम छीन कर
घर निष्कासित किया मुझे,
छिन गया वसीयत से हिस्सा
कानूनन क्या मिला मुझे?
घिन आती है इस तन से अब
निज जीवन को कोस रहा,
पहचान मिली न कोई मुझे
ईश्वर से भी रोष रहा।
गैरों से शिकवा अब कैसी
माँ ने ममता ठुकराई,
रौंद दिया सम्मान जगत ने
कैसी ये किस्मत पाई।
यादें मेरी धुँधली सी हैं
संगी -साथी छूट गए,
पाया जन्म अधूरा तन-मन
रिश्ते-नाते टूट गए।
नर-नारी की जाति न पाई
दुखित हृदय को समझाया,
झूठा वेश हाथ की ताली
ढोलक लेकर इतराया।
किस्मत का सब लेखा-जोखा
ताली भी लगती गाली,
लिंग दोष पाकर इस तन में
छक्का बन नफ़रत पाली।
जलसों को रौशन करता हूँ
अंतस तम से घिरा हुआ,
लोग दुआएँ माँगें मुझसे
खुद नज़रों से गिरा हुआ।
रिसते रोज़ घाव हैं मेरे
रखता नहीं कोई मरहम,
घूँट-घूँट जीवन को तरसा
जीवित लाश बना हरदम।
तड़प रहा मृत्यु के बाद भी
चप्पल मार सही न जाय,
अगला जन्म पाऊँ न किन्नर
मार लात कहें समझाय।
डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
वाराणसी(उ. प्र.)
संपादिका- साहित्य धरोहर