कविता
“वैश्या का क्यों नाम दिया?”
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वैश्या का अंतर्मन कहता
तू पाकीज़ा बन मिसाल,
देह रौंदते हैवानों से
कर ले आज लाख सवाल…।
किसकी बेटी ने खुद चल कर
कोठे को आबाद किया,
दुनिया के ठेकेदारों क्यों
वैश्या को बदनाम किया?
पत्नी लक्ष्मी इन मर्दों की
माँ-बेटी के रखवाले,
कोठे पर क्यों वैश्याओं के
जाकर जिस्म मसल डाले?
बेच दिया कोठे पर लाकर
रो-रो बाला हुई निढ़ाल,
पटकी सेज उतार नथुनिया
कुचल तन क्यों किया हलाल?
बंद हो गए सब दरवाजे
पग में घुँघरू बाँध दिए,
आलिंगन में क्यों भर-भर के
सौदागर ने जाम पिए?
अपने कृत्य छिपाने को क्यों
कोठे को बदनाम किया,
पावन गंगा मैली करके
वैश्या का क्यों नाम दिया?
देखो मैं किस्मत की मारी
बिक हाथों में चली गई,
सूनी माँग सुहागन बन कर
बिस्तर पर क्यों छली गई?
कभी दर्द की दवा बनी मैं
कभी खिलौना बन टूटी,
जिस्म रौंद कर इन मर्दों ने
मेरी लज्जा क्यों लूटी?
जिन वहशी से चलते कोठे
आज बार में वो जाते,
रात बिता कर इन बारों में
कोठों को क्यों झुँठलाते?
आज झाँक खिड़की, छज्जों से
ग्राहक अपना खोज रही,
बार में नर्तन देख किसी का
अपने को क्यों कोस रही?
हर घर-आँगन धूम मची है
ईद, दिवाली या होली,
ज्योति बिना अँधियारी गलियाँ
मेरी खाली क्यों झोली?
इज्ज़त को मैं तरस रही हूँ
भूखी -प्यासी- दुत्कारी,
बीच भँवर में डूबे नैया
आन बचा लो गिरधारी।
डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
वाराणसी (उ. प्र.)
संपादिका-साहित्य धरोहर