कविता
“देशभक्त की अभिलाषा”
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निष्ठुर मन की
बुझी बाती सा,
मैं क्यों
जीवन मौन धरूँ?
जी चाहे मैं
रजत रेत सा
हस्त पकड़ से
फिसल पड़ूँ।
आशाओं के
पंख लगा के
अनंत व्योम में
मैं विचरूँ,
जी चाहे बन
सरस मेघ सा
तप्त धरा को
तृप्त करूँ।
धैर्य धरित कर
पर्वत सा मैं
अडिग भाव से
इठलाऊँ,
जी चाहे
गंगाजल बन कर
पावन पाहन
दुलराऊँ।
खिले पुष्प सा
त्यागी मन धर
वीर राह पर
बिछ जाऊँ,
जी चाहे
लहू होली खेलूँ
देशभक्त मैं
कहलाऊँ।
डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
वाराणसी (उ. प्र.)
संपादिका-साहित्य धरोहर