कविता
“परिंदे”
आँखों में परिंदे पाले थे
उम्मीद लगा इंसानों की
मतवाले दो खग झूम उठे
भूले हस्ती दीवानों की।
भाल लगा कर चंदन टीका
मजहब सारे हार गए
बेखौफ़ सरहद लाँघ कर
स्वच्छंद परिंदे पार गए।
मंदिर मसजिद शीश नवाया
विनम्र भाव सौगात से
जल बैठी इंसानी फ़ितरत
इन परिंदों की जात से।
डॉ.रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
वाराणसी(उ. प्र.)
संपादिका-साहित्य धरोहर