कविता
‘उजाला रास ना आया’
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कहूँ किससे व्यथा अपनी
यहाँ कितना सहा मैंने।
दरिंदों से हुई लाचार
लब को सिल लिया मैंने।
कदम बढ़ते नहीं थल पर
भयावित काँपती हूँ मैं।
छुएँ ना हाथ दुर्योधन
कलेजा ढाँपती हूँ मैं।
घसीटी बाँह ,तन लूटा
मगर कोई नहीं आया।
हुई जब खून से लथपथ
सड़क पर फेंक दी काया।
सुबह जब होश में आई
पड़ा अपनों से तब पाला।
निकाला वास्ता देकर
किया था रात मुँह काला।
हुई बे-आबरू जब से
उजाला रास ना आया।
तड़प जीने नहीं देती
मुझे मधुमास ना भाया।
कभी जुए में हारी तो
कभी श्री राम ने त्यागा।
तमाशा बन गई नारी
मगर इंसान ना जागा।
किया रुस्वा जमाने ने
धरा सीता समा बैठी।
लुटाकर द्रोपदी निज लाज
अपनों में लजा बैठी।
न सतयुग रास आया था
न कलयुग रास आया है।
सदा हारी यहाँ नारी
यही अहसास पाया है।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
वाराणसी(उ. प्र.)
संपादिका-साहित्य धरोहर