कविता 1(मैं- अहम ब्रह्मास्मि)
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धनबाद,झारखंड, भारत
कविता का शीर्षक – (*मैं-अहम ब्रह्मास्मि)
मै ही आदि,मै ही अंत हूँ।
मैं ही मुल्ला,मै ही संत हूँ।।
मैं ही रहमत, मैं ही बरकत हूँ।
मैं खुद के ख़िलाफ़,मैं ही खुद से सहमत हूँ।।
मैं ही साकार,मैं ही निराकार हूँ।
मैं ही आकार,मैं ही प्रकार हूँ।।
मैं ही अहम, मैं ही वहम हूँ।
मैं ही बुरा ,मैं ही अच्छा करम हूँ।।
मैं ही अर्पण,मैं ही तर्पण हूँ।
मैं ही अश्क,मैं हीं दर्पण हु।।
मैं ही पतझड़,मैं ही सावन हूँ।
मैं ही कई दिलो की धड़कन हूँ।।
मैं ही सकल मैं ही सूरत हूँ।
मैं ही चाहत ,मैं ही मोहब्बत हूँ।।
मैं ही प्रेम मैं ही पुजारी हूँ।
मैं ही पथिक मैं ही सवारी हूँ।।
मैं ही खुदा, मैं ही इबादत हूँ।
मैं ही रहमत,मैं ही बरकत हूँ।।
मैं ही हुंकार’में ही आवाज़ हूँ।
मैं ही तख्त’में ही ताज़ हूँ।।
मैं ही अल्लाह,मैं ही राम हूँ।
मैं ही तीर्थ’ मैं ही चारों धाम हूँ।।
मैं ही सुबह’में ही शाम हूँ।
मैं ही काम’मे ही आराम हूँ।।
मैं ही जवाब,मैं ही सवाल हूँ।
मैं ही शिव, मैं ही महाकाल हूँ।।
मैं ही रंग, मैं ही रूप हूँ।
मैं ही खिलता हुआ धूप हूँ।।
मैं ही हकीकत,मैं ही ख्वाब हूँ।
मैं ही अपने बग़ीचे का गुलाब हूँ।।
मैं ही समुद्र, मैं ही प्यास हूँ।
मैं ही कई लोगों के जीने का आस हूँ।।
मैं ही पवन,मैं ही आग हूँ।
मैं ही सातोसुर, मैं ही राग हूँ।
मैं ही आग ,मैं ही पवन हूँ।
मैं ही दुखों का कारण,मैं ही निवारण हूँ।।
मैं ही घर परिवार, मैं ही समाज हूँ।
मैं ही रामायण गीता क़ुरान,मैं ही नमाज़ हूँ।।
मैं ही गरीब,मैं ही अमीर हूँ।
मैं ही फ़कीर,मैं ही कबीर हूँ।।
मै ही आदि,मैं ही अंत हूँ।
मैं ही हरामी मैं ही संत हूँ।।
राज वीर शर्मा
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