कविता ही हो /
नीचे गिरकर
नहीं उठाना
कुछ भी हो,
कविता ही हो ।
उदरम्भरि
अनात्म नहीं हम,
कर्मशील हैं,
उठा कुदाली
पर्वत खोदा,
श्रम का बाग
उगाया हमने ;
चुचवाकर
दिन-रात पसीना
इस शरीर का,
हिम्मतवाला
हिकमत वाला
घर-संसार
सजाया हमने ;
बिन मेहनत का
नहीं है पाना
कुछ भी हो
कविता ही हो ।
चारण-भारण-
भाट नहीं हम,
केवल कवि हैं
मौलिक चिंतन
की धरती पर
शब्द प्यार के
उगा रहे हैं ;
आँखों-आँखों,
नाकों-नाकों
पर,अनुशासन–
स्वाभिमान का
बुझता दीपक
जला रहे हैं ;
जूठ-चबैना
नहीं चबाना
कुछ भी हो
कविता ही हो ।
चाव नहीं है
तनिक हमें भी
कवि मंचों पर
मिले लिफाफा,
झूठे तमगे
और प्रसंशा
नहीं चाहिए ;
सदियों से प्रति-
शोध लिया है
सत्ताओं से
अब भी लेंगे,
काँटे हैं हम !
सुमन-सहारा
नहीं चाहिए ;
बहती गंगा
नहीं नहाना
कुछ भी हो
कविता ही हो ।
नीचे गिरकर
नहीं उठाना
कुछ भी हो
कविता ही हो ।
०००
— ईश्वर दयाल गोस्वामी
छिरारी (रहली),सागर
मध्यप्रदेश – 470227
मो.- 8463884927