कविता — लाडली
हरिगीतिका छंद
लाडली
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यह लाडली है देश की आकाश को छूने चली
सब तोड़कर बाधा बढ़ी है आज वह हक़ की गली
जग सोचता था है बड़ी मज़बूर यह नासाज़ भी
इसने कहा मैं हूँ सबल मज़बूत है आवाज़ भी
कुश्ती हुई जो मर्द से तो भी नहीं पीछे हटी
हर दाँव को यह झेलते लड़ती रही हर पल डटी
था जोश इसमें गर्व का अभिमान का था हौसला
मारा पलटकर दांव जब फिर वह नहीं टाले टला
सुन ले जगत अब यह नहीं अबला रही सबला बनी
किस बात में पीछे रही है जंग में भी है ठनी
घर बार हो संसार हो सबमे यही आगे खड़ी
दुख दर्द हो बाधा रहे फिर भी यही आगे लड़ी
— क़मर जौनपुरी