( कविता ) रोटियाँ
रोटियाँ हाँ रोटियाँ
माँ के हाथों से बनीं
वो खिलखिलाती रोटियाँ ।
हाथ माँ के गढ़ चली
फिर तवे पर चढ़ चली
तृप्ति का बन के निवाला
खूब भातीं रोटियाँ ।
होता कभी ऐसा भी है
भूखा कोई रोया भी है
चाँद तो आया नज़र
पर मिल न पाई रोटियाँ ।
है यही दिल से दुआ
भूख ने जिसको छुआ
वह पेट खाली न रहे
मिलती रहें ये रोटियाँ
फेंका रईसी मे किसी ने
छीन कर पाया किसी ने
बोले अमीरी “नाँन” इसको
” गीत ” की हैं रोटियाँ ॥
गीतेश दुबे “गीत”