कविता मेरी
कविता मेरी
कविता मेरी संगिनी, कविता मेरी अंग।
एकाकी मैं कहन को, सदा कविताएँ संग।
कविता संग बीते दिन रात, कविता मेरी मित्र।
सोना-जगना संग में , बिन बाधा, बिन फिक्र।
खाते-पीते,चलते-फिरते, मन में रहे सदा कविता।
सोने ना दे,मुश्किल एक, सपनों पर उसका पहरा।
कब इसने संबंध बनाया, कब हो ली साथ मेरे? याद नहीं कुछ,बस इतना कि सदा रही ये साथ मेरे।
रोना-हंसना,बाते करना,हरपल अपनी कविता से।
कभी तो मेरी पत्नी को भी, होती थी ईर्ष्या इससे।
प्रयास बहुत मैं करता हूँ, इसको दूर भगाऊं।
कुछ पढ़ना-सोना हो ज्यादा, दूर इसे कर आऊं।
लेकिन कविता जोंक-सी चिपटी, चिपटी रहती है।
जैसे इसका हक हो मुझ पर, धमक से रहती है।
ज़िद्दी है, कम हठी नहीं, शब्द बदल देती है।
लिखा नहीं जो इसके मन का,रद्दी में फेंकती है।
लगता आजीवन संग रहेगी, ऐसा ही है मन इसका।
फिर तो शरणागत की रक्षा, बन जाता कर्तव्य मेरा।
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